बहुराष्ट्रीय साजिश है खेती पर आयकर
शिवकांत झा
डेनियर बेल ने बिल्कुल सही कहा है कि राजनीति नव-औद्योगिकीकरण की रंगमंच बन गयी है. राजनीति आज सचमुच अमेरिकी दादागीरी के नेतृत्व में पूरी दुनिया पर शासन करनेवाले बहुराष्ट्रीय साम्राज्यवाद के हाथों की कठपुतली मात्र रह गयी है. देश के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक प्रबंधन में इसी साम्राज्यवाद का नियंत्रण दिखायी पड़ता है. खेती भी इनमें से एक है, जिसके शिकार हो रहे हैं किसान और खेतिहर मजदूर, जबकि दूसरी ओर चमचमाते स्वप्निल भारत में मलाई काटनेवाले कॉरपोरेट्स कर समािप्त् की गुहार लगा रहे हैं. आयकर अधिनियम-1961 की धारा 10 के अनुसार खेती करमुक्त कर दी गयी है, जबकि कॉरपोरेट्स खेती से होनेवाली आय पर कर लगाने की मांग कर रहे हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि कृषि आय पर सही और स्पष्ट दृष्टि बनायी जाये.
पहले इस मुद्दे को संवैधानिक दृष्टि से देखते हैं. संघीय सूची में 82 विषय संसद को गैरकृषि क्षेत्रों पर कर लगाने का अधिकार देते हैं और अवशिष्ट 47 विषयों से कोई भी अतिरिक्त विधायी शक्ति प्राप्त् नहीं की जा सकती; राज्य सूची के 46विषय राज्यों को खेती पर आयकर लगाने का अधिकार देते हैं. कृषि आय पर कर लगाने या न लगाने का राज्यों का निर्माण सामाजिक-आर्थिक परिवेश की विभिन्नताओं से निर्धारित होता है, जिसका निर्णय स्वयं राज्य अपने हित में ले सकते हैं. संसद इस पर अधिनियम 249 के अंतर्गत भी आयकर नहीं लगा सकती, जो इसे राष्ट्रहित में राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार देता है. इसके दो स्पष्ट कारण हैं- पहला, ऐसा कानून तब तक राष्ट्रहित में नहीं माना जा सकता, जब तक उच्च्स्तरीय व निगमित भारत के राष्ट्रहित समान नहीं होते. अधिनियम-265 के तहत कानून के सिवाय न तो कोई कर लगाया जा सकता है और न ही एकत्र किया जा सकता है. `कानून की सत्ता' का आशय `संवैधानिक कानून की सत्ता' से है.
अत: संविधान संशोधन किये बिना कृषि आय पर कर नहीं लगाया जा सकता. केशवानंद भारती विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने हमारी शासन व्यवस्था को संघात्मक घोषित किया और बोम्मई विवाद में कहा कि प्रजातंत्र और संघवाद हमारे संविधान के अनिवार्य तत्व हैं. सवाल है कि क्यों संवैधानिक व्यवस्थाओं, विभिन्न आदेशों और अधिनियमों को या तो छोड़ा जा रहा है या उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है? आधुनिक बाजारी अर्थव्यवस्था में आज हम संवैधानिक व्यवस्थाओं से पीछे, यानी उपनिवेशवादी युग की ओर जा रहे हैं. हम सेज, निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बड़े-बड़े भूखंड देकर जमींदारों की एक नयी प्रजाति बना रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय समझौतों द्वारा सरकार भी उनके हितों को बढ़ावा दे रही है. बेशक इस नवपूंजीवाद ने समाज के एक वर्ग को समृद्ध किया है, पर एक बड़े वर्ग को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है.
हाल के वर्षों में आयी अल्पकालिक पूंजी की बाढ़ की व्याख्या करते हुए नोबल पुरस्कार प्राप्त् अर्थशास्त्री स्टिग्लिट्ज कहते हैं `यह पूंजी का वह रूप है जो कारखानों आदि में दीर्घकालीन निवेश करने की बजाय एक दिन, एक सप्तह या फि र एक महीने में ही बड़े मुनाफे की उम्मीद करता है.' आइएमएफ का विचार है कि उनके पूंजी के लेन-देन पर और पूंजी लाभ पर कोई कर न लगाया जाये; लगाया भी जाये तो बहुत कम. अमेरिकी कर नीति पर स्टिग्लिट्ज ने अपनी पुस्तक रोरिंग नाइनटीज में लिखा है `हमने पूंजी लाभ पर कर हटा दिये हैं' और बाजार से कहते हैं, `यदि तुम इससे अधिक पैसा कमाना चाहते हो तो कमा सकते हो. यदि तुम देखो कि नब्बे के दशक में कर नीति का क्या हुआ तो यह चौंकानेवाला तथ्य है. 1993 में हमने निम्न-मध्य आय वाले अमेरिकियों पर कर बढ़ा दिये और 1997 में उच्च आय वालों के आय कर घटा दिये.' यानी आम लोगों पर कर बढ़ाये जा रहे हैं और अमीर कर में छूट पा रहे हैं.
यदि किसानों-खेतिहर मजदूरों की जमीनें बहुराष्ट्रीय शक्तियों द्वारा ली गयी, तो इसके भीषण परिणाम होंगे, क्योंकि ये शक्तियां पूरी तरह व्यापारवाद, निगमवाद, उपभोक्तावाद और सुखवाद तथा लोलुपता में विश्वास करती हैं. यदि हमारी कृषि का विनाश हुआ तो भारतीय सभ्यता ही नष्ट हो जायेगी. हमारी आजादी और संस्कृति को बनाये रखनेवाला जोश खत्म हो जायेगा. जापान पर बम गिरने से पहले, अमेरिका में भी लोगों की प्रतिक्रिया जानने और जापानियों की मानसिकता का अध्ययन करने के लिए एक आयोग का गठन हुआ था. देश में भी ऐसा ही किया जाना चाहिए. उन लोगों द्वारा, जिन्होंने अब तक खुद को पूंजीपतियों के हाथों में बेचा नहीं है, इन दाम लगानेवालों, एसइजेड के मालिकों की मंशा को जानने के लिए एक अध्ययन किया जाना चाहिए.
Sunday, June 3, 2007
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