वंजारा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह राज्य मंत्री अमित शाह के चहेते अफ सर के रूप में मशहूर थे.
अहमदाबाद: गत मंगलवार को गुजरात पुलिस ने डेपुटी इंस्पेक्टर जेनरल(बॉर्डर रेंज) डीजी वंजारा, पुलिस अधीक्षक (इंटेलीजेंस ब्यूरो) राजकुमार पांडियन और राजस्थान पुलिस के एमएन दिनेश कुमार को सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के आरोप में गिरफ्तार क र लिया.
26 नवंबर, 2005 को एक फ र्जी मुठभेड़ में गुजरात पुलिस ने सोहराबुद्दीन को मार गिराया था. सुप्रीम कोर्ट के सामने गुजरात सरकार ने इसे स्वीकार भी कि या था. गुजरात सरकार के वकील एटीएस तुलसी ने अदालत में क हा, ` प्रारंभिक जांच में पाया गया कि यह एक फर्जी मुठभेड़ था.'
स्वयं सरकार द्वारा सनसनीखेज स्वीकारोक्ति कपटपूर्ण रही है, क्योंकि वंजारा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह राज्य मंत्री अमित शाह के चहेते अफसर के रूप में मशहूर थे. तो फि र क्यों गुजरात सरकार ने एपेक्स कोर्ट के सामने यह स्वीकार किया कि राज्य के वरिष्ठ पुलिस अफ सरों ने सोहराबुद्दीन को मारा है?
राज्य के कांग्रेस नेता अर्जुन मोढ़ावाडिया ने पहले ही आरोप लगाया है कि सरकार गृहमंत्री को बचाने के लिए पुलिस अफ सरों को गिरफ्तार कर रही है.
गांधीनगर में एक स्रोत के अनुसार, ` राजस्थान भाजपा के एक वरिष्ठ नेता को इस मामले में अपना नाम घसीटे जाने का भय है. मामले को बिगड़ने से रोक ने या राजनीतिक होने से बचने के लिए पुलिस अफसर गिरफ्तार कि ये गये हैं. याद कीजिए, वंजारा और पांडियन के साथ-साथ राजस्थान के आइपीएस अफसर दिनेश कुमार को भी गिरफ्तार किया गया है.''
जिस `मुठभेड़' को अब फर्जी बताया गया है, वह गुजरात और राजस्थान पुलिस का संयुक्त अभियान था. पुलिस ने दावा कि या था कि शेख लश्क र-ए-तय्यबा का कारकुन था और जब वह भागने की कोशिश कर रहा था, तब अहमदाबाद में विशाला सर्किल के पास मारा गया.
शेख के मारे जाने के बाद उसकी पत्नी कौसर बी गायब हो गयी थी. सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन ने सुप्रीम क ोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें दावा किया गया था कि गुजरात पुलिस की मुठभेड़ फर्जी थी और वह जानना चाहते थे कि उनकी भाभी कौसर बी क हां है.
यही वह सवाल है, जिसका जवाब गुजरात सरकार नहीं देना चाहती है.
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद मार्च, 2007 में जांच का आदेश दिया गया. नतीजतन, गुजरात सरकार अदालत में यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हुई कि यह एक फर्जी मुठभेड़ थी, और वह इस मामले में अपने अफसरों क ी तहकीकात क र रही है.
इसमें दिलचस्प बात यह है कि प्रशांत दयाल नामक पत्रकार, जो क भी रिक्शाचालक थे, ने इस सनसनीखेज गिरफ्तारी के पीछे साहसी भूमिका निभाई.
गुजरात पुलिस ने मीडिया को बताया था कि पाकि स्तान स्थित आतंक वादी संगठन लश्क र-ए-तय्यबा के साथ सोहराबुद्दीन का संबंध था. मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से सोहराबुद्दीन राजस्थान से गुजरात आया था. उसके बारे में राजस्थान पुलिस ने गुजरात पुलिस को जानकारी दी थी. यहां तक कि राजस्थान पुलिस ने उसे पक ड़ने के संयुक्त ऑपरेशन के दौरान उसकी पहचान करने के लिए गुजरात पुलिस का साथ दिया था. जब वह मोटरसाइकिल से भागने की कोशिश क र रहा था, तभी वह मारा गया.
दयाल गुजराती दैनिक दिव्य भास्क र में वरिष्ठ संवाददाता का काम क रते हैं. उन्होंने ही सबसे पहले नवंबर 2006 में यह स्टोरी ब्रेक की थी. दयाल ने `रिडिफ .क ॉम' क ो बताया, ``पुलिस के बयान और असलियत बिलकुल ही भिन्न हैं. जितना दिखता है उससे कहीं ज्यादा है कहानी. आरोप लगाया गया कि सोहराबुद्दीन राजस्थान में बड़ा गुंडा था. वह संगमरमर के बड़े व्यापारियों और बड़े बिल्डरों से फिरौती वसूलने के धंधे में लगा था. गुजरात पुलिस में मेरे सूत्रों ने बताया कि सोहराबुद्दीन को मारने के लिए राजस्थान के कुछ लोगों ने 2 क रोड़ रुपये की सुपारी की व्यवस्था की थी. मगर जगह राजस्थान की बजाय गुजरात चुना गया. ''
हालांकि ठोस सबूतों के अभाव की वजह से प्रशांत ने उन लोगों के नाम बताने से इन्कार क र दिया, जिन्होंने सोहराबुद्दीन को मारने के लिए सुपारी दी थी.
जैसे-जैसे चीजें साफ होंगी, गुजरात सरकार के लिए परेशानियां बढ़ेंगी. पिछले चार वर्षों में कम से क म छह मुठभेड़ हुए हैं. इन सब के बारे में पुलिस ने आतंक वादियों को मारने का दावा कि या, जो क थित रूप से मोदी को मारने की योजना में संलग्न थे.
दयाल ने बताया, ` पुलिस ने सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी के साथ-साथ तुलसी प्रजापति, जो उसकी पत्नी की सहेली थी, को महाराष्ट्र में सांगली के पास बस से उतार लिया. पुलिस अफसर गीता जौहरी की जांच से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये. पुलिस अधिकारी उन तीनों को अहमदाबाद के पास एक फार्महाउस में ले गये, जहां उनको यातनाएं दी गयीं. और फिर सोहराबुद्दीन को एक फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया. इसके बाद पुलिस अफ सरों को भय हुआ कि कौसर बी कहीं सब कुछ बता न दे. संभवत: उसका भी खात्मा कर दिया गया. कोई नहीं जानता कि उसका क्या हुआ. उस वक्त तुलसी को जाने दिया गया, चूंकि वह वनजारा की मुखबिर थी. मगर, जब अखबारों ने फ र्जी मुठभेड़ के बारे में छापना शुरू कि या तो तुलसी के मारे जाने की भी खबर आयी. हमें बताया गया कि वह भी बनासकांठा जिले में एक मुठभेड़ में मारा गया. बनासकांठा जिला वनजारा के अधिकारक्षेत्र में आता है.
दयाल ने बताया कि जब उसने पहली बार स्टोरी फाइल की तो संपादक भी दुविधा में थे, क्योंकि इस तरह के अपराधों के दस्तावेजी सबूत नहीं हो सकते थे. दयाल ने बताया कि `` मुझे पुलिस अधिकारियों के साथ शराब पीने की आदत लग गयी थी, मैं एक निश्चित सीमा के अंदर पीता था, ताकि सुन और समझ सकूं कि पुलिस अफ सर पीने के बाद क्या बोलते हैं.''
प्रशांत ने बताया कि एक शाम सोहराबुद्दीन मुठभेड़ के मामले में संलग्न पुलिस अधिकारियों ने शेखी बघारते हुए बताया कि कैसे उन्होंने उसे `दंडित' कि या और राष्ट्रविरोधी तत्व को खत्म कि या.
दयाल ने अगली सुबह इस सुराग के साथ मामले के अन्य विवरण का मिलान कि या. उसने बताया कि `` अहमदाबाद के एक फार्महाउस से मुझे सूचना मिली कि तीन लोग वहां बंदी बना क र रखे हुए थे. फिर वनजारा के गांव के मेरे सूत्र से मुझे मालूम हुआ कि उन दिनों वनजारा अपनी टीम के साथ वहां था. फार्महाउस के नौकर से पता चला कि वहां एक बुरकानशीन महिला को रखा गया था. मुझे संदेह हुआ कि वह कौसर बी ही होनी चाहिए. नशे की अवस्था में पुलिस अधिकारियों ने जितनी बातें बतायी थीं, वो सब की सब बातें मिलती चली गयीं.
फरजी मुठभेड़ का परदाफाश करनेवाला पत्रकार
दयाल ने भी अपनी छोटी-सी जिंदगी में बहुत कुछ झेला है. वह अपनी पढ़ाई-लिखाई में बहुत ही कमजोर था. आठवीं क क्षा में सभी विषयों में फेल कर गया था. तब उसने तय किया कि वह अपनी पढ़ाई का खर्चा खुद निकालेगा, माता-पिता की गाढ़ी कमाई नहीं बरबाद क रेगा. उसने गैरेज में काम क रना शुरू कि या. जब वह क ालेज में था तो रात में ऑटोरिक्शा चलाया क रता था. पत्रकारिता की डिग्री हासिल करने के बाद उसे एक नौकरी हासिल तो हुई, परंतु वेतन देने से मालिकोंने मना क र दिया था, जो कि गुजरात की पत्रकारिता में बहुत ही आम बात है. ट्रेनी और स्ट्रिंगरों को क भी-क भार ही पैसे दिये जाते हैं. इसकी बजाय उन्हें विज्ञापन लाने को कहा जाता है, जिस पर कमीशन मिलने से उन्हें आमदनी होती है.
परंतु दयाल इतने उत्साही थे कि रिपोर्टर के रूप में नाम कमाने के लिए उन्होंने एक वर्ष से अधिक तक बिना वेतन के काम कि या. नतीजतन, दिन में अखबार के लिए काम क रने के बाद रात में ऑटोरिक्शा चलाने का क ाम जारी रखना पड़ा. पत्रकारिता के अपने 19 वर्षीय कैरियर में दयाल ने 14 बार अपना काम बदला. वे कहते हैं- अपने कैरियर में मुझे क भी बोनस या इन्क्रीमेंट नहीं मिला, क्योंकि मैं कभी कि सी अखबार में जम कर नहीं रह सका. हर रोज मैं अपने संपादकों से स्टोरी के लिए लड़ा करता था.''
उसने अपराध संवाददाता के रूप में ख्याति प्राप्त की है. खोजी पत्रकारिता के लिए भी उसे जाना जाता है. वे अपने क ॉलम `जीवती वार्ता' के लिए भी जाने जाते हैं. दयाल मानते हैं कि राज्य सरकार जो कुछ भी कर रही है , वह सिर्फ इसलिए कि दोषियों को बचाया जा सके. परंतु मुझे पक्का यकीन है कि निकट भविष्य में और भी गिरफ्तारियां होंगी और बड़े नाम भी सामने आएंगे.
Monday, April 30, 2007
Friday, April 27, 2007
क्रिकेट से परे भी है एक संसार
चिन्मय मिश्र
इन दिनों भारत का संपूर्ण मीडिया फिर चाहे अखबार हों या टेलीविजन, क्रिकेट विश्व कप की खबरों से सराबोर हैै. इसी से स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों माध्यमों के सामाजिक सरोकार अब न्यून से न्यूनतम हो गये हैं. एक तरह की होड़ इन माध्यमों में चल रही है कि कौन इस संबंध में कितनी सामग्री अपने दर्शकों/पाठकों को उपलब्ध करवा सकता है. ऐसा लग रहा है, मानो सारा देश मात्र क्रिकेट से ही संचालित होता हो. देश की सारी समस्याआें का हल यदि क्रिकेट की हार-जीत से होता हो, तो ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं है. सिर्फ मीडिया के ही साथ नहीं, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार, जो भूलवश देश के कृषि मंत्री भी हैं, के साथ भी ऐसा हुआ है. पिछले ३० महीनों के अपने कार्यकाल में उन्होंने कभी भी किसानों के संबंध में कोई निश्चयात्मक बात की हो, ध्यान में नहीं आता. जब देश में किसान प्रतिदिन खुदकुशी कर रहे हों, तब देश का कृषि मंत्री अपना ध्यान कहीं और लगा सकता है, यह सोच कर ही सिहरन होने लगती है.
इसी बीच नंदीग्राम की घटना में एक दर्जन से अधिक लोग मारे गये, पर उसे अपेक्षित कवरेज नहीं मिला. वहीं बॉब वूल्मर की मृत्यु/ हत्या को लेकर अखबारों के पहले से आखिरी पृष्ठ भरे पड़े थे; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पूरे बुलेटिन. दोनों घटनाओं की कोई तुलना तो नहीं है, परंतु दोनों घटनाओं के विश्लेषण में हुई असमानता हम सबके सामने है.
भारत की हार के बाद फैला आक्रोश तो हर कहीं दिखाया जा रहा है, परंतु देश में फैल रही व्यापक अराजकता पर कोई बात नहीं करता. इस बीच सबसे सुखद आश्चर्य की बात यह रही कि केंद्रीय खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर का इस संबंध में कोई वक्तव्य जारी नहीं हुआ, जो संभवत: पंचायतों और अन्य खेलों, जिन्हें प्रोत्साहन की आवश्यकता है, को लेकर थोड़े गंभीर जान पड़ते हैं. वैसे भी यह सच है कि क्रिकेट की वजह से अन्य खेलों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.
बहरहाल टीम इंडिया की पराजय के बाद पान दुकानों पर खड़े लोगों से लेकर सर्वोच्च् पदस्थ व्यक्ति तक अपने-अपने विश्लेषण सामने रख रहे हैं. लोगों ने भारतीय क्रिकेट को मृत घोषित कर सिर मुंडवा लिये हैं. क्रिकेट खिलाड़ियों के खिलाफ उग्र व अश्लील फब्तियों का अंबार लग गया है. आखिर इस अतिरेक का क्या अर्थ है?
सारे विश्व में फुटबॉल या रग्बी को लेकर इस प्रकार का अतिरेक बना रहता है. फुटबॉल के खेल को तो कई देशों ने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया है. परंतु क्रिकेट को तो भद्र लोगों का खेल माना जाता रहा है. ऐसे में इसमें ऐसी उग्रता व व्यावसायिकता के प्रवेश का विस्तार से अध्ययन होना चाहिए. इसका भी अध्ययन होना चाहिए कि इस विस्तार के लिए मीडिया कितनी जिम्मेदार है? इसलिए कि पूरा व्यावसायिक विश्व आज मीडिया के कंधे पर ही सवारी कर रहा है. ऐसे में विश्लेषकों और क्रिकेट प्रशंसकों को कोई हक नहीं है कि वे खिलाड़ियों की व्यावसायिक गतिविधियों को समाप्त् या सीमित करने की बात भी करें. जब हम खिलाड़ियों से खेल नहीं, हमेशा चमत्कार की उम्मीद रखेंगे तो यह कैसे संभव है कि चमत्कारी व्यक्ति सामान्य व्यवहार करे. अपने आसपास की असुरक्षा को देखते हुए आम आदमी की तरह क्रिकेट खिलाड़ी भी सब कुछ जल्दी कर लेना चाहता है, तो क्या आश्चर्य?
वैसे मीडिया का क्रिकेट प्रेम भी नि:स्वार्थ नहीं है. वर्षोंा मेहनत कर मीडिया ने क्रिकेट नामक बंदर को अपने हित के लिए नचाया. आज उस मीडिया संचालित बंदर ने जब उसी को काटा तो तिलमिलाहट के साथ-साथ असुरक्षा की भावना भी मीडिया के सामने आयी. टीम इंडिया की हार से उनका लेना-देना मात्र इतना था कि उन्हें भरपूर विज्ञापन मिलें और कुछ दिनों के लिए भागमभाग से छुटकारा भी मिले. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि टीम इंडिया की हार ने सारे समीकरण बदल दिये. अब ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाये? इसी दौरान उपजी तात्कालिकता ने इसका एक अदभुत तर्क दिया (मजाक में ही सही) - इस हार की जिम्मेदारी स्व इंदिरा गांधी की है, न वे बांग्लादेश का निर्माण करतीं और हमें आज उससे पराजय का मुंह देखना पड़ता. है ना मजेदार तर्क!
बहरहाल बात मीडिया की हो या कृषि मंत्री की, यह तो अब सिद्ध हो ही चुका है कि दोनों ने देश-समाज द्वारा उनको सौंपी गयी मुख्य जिम्मेवारियों का निर्वाह भली प्रकार नहीं किया है. भविष्य में कौन किस तरह बर्ताव करेगा, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा. आप और हम सिर्फ आशा कर सकते हैं कि किसान, दलित, आदिवासी, महिलाएं, बच्च्े और पर्यावरण कभी मीडिया और सत्ता में उतनी प्रमुखता पा पायेंगे जितनी कि क्रिकेट को प्राप्त् है. वैसी संभावनाएं हमेशा शेष रहती हैं.
इन दिनों भारत का संपूर्ण मीडिया फिर चाहे अखबार हों या टेलीविजन, क्रिकेट विश्व कप की खबरों से सराबोर हैै. इसी से स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों माध्यमों के सामाजिक सरोकार अब न्यून से न्यूनतम हो गये हैं. एक तरह की होड़ इन माध्यमों में चल रही है कि कौन इस संबंध में कितनी सामग्री अपने दर्शकों/पाठकों को उपलब्ध करवा सकता है. ऐसा लग रहा है, मानो सारा देश मात्र क्रिकेट से ही संचालित होता हो. देश की सारी समस्याआें का हल यदि क्रिकेट की हार-जीत से होता हो, तो ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं है. सिर्फ मीडिया के ही साथ नहीं, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार, जो भूलवश देश के कृषि मंत्री भी हैं, के साथ भी ऐसा हुआ है. पिछले ३० महीनों के अपने कार्यकाल में उन्होंने कभी भी किसानों के संबंध में कोई निश्चयात्मक बात की हो, ध्यान में नहीं आता. जब देश में किसान प्रतिदिन खुदकुशी कर रहे हों, तब देश का कृषि मंत्री अपना ध्यान कहीं और लगा सकता है, यह सोच कर ही सिहरन होने लगती है.
इसी बीच नंदीग्राम की घटना में एक दर्जन से अधिक लोग मारे गये, पर उसे अपेक्षित कवरेज नहीं मिला. वहीं बॉब वूल्मर की मृत्यु/ हत्या को लेकर अखबारों के पहले से आखिरी पृष्ठ भरे पड़े थे; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पूरे बुलेटिन. दोनों घटनाओं की कोई तुलना तो नहीं है, परंतु दोनों घटनाओं के विश्लेषण में हुई असमानता हम सबके सामने है.
भारत की हार के बाद फैला आक्रोश तो हर कहीं दिखाया जा रहा है, परंतु देश में फैल रही व्यापक अराजकता पर कोई बात नहीं करता. इस बीच सबसे सुखद आश्चर्य की बात यह रही कि केंद्रीय खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर का इस संबंध में कोई वक्तव्य जारी नहीं हुआ, जो संभवत: पंचायतों और अन्य खेलों, जिन्हें प्रोत्साहन की आवश्यकता है, को लेकर थोड़े गंभीर जान पड़ते हैं. वैसे भी यह सच है कि क्रिकेट की वजह से अन्य खेलों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.
बहरहाल टीम इंडिया की पराजय के बाद पान दुकानों पर खड़े लोगों से लेकर सर्वोच्च् पदस्थ व्यक्ति तक अपने-अपने विश्लेषण सामने रख रहे हैं. लोगों ने भारतीय क्रिकेट को मृत घोषित कर सिर मुंडवा लिये हैं. क्रिकेट खिलाड़ियों के खिलाफ उग्र व अश्लील फब्तियों का अंबार लग गया है. आखिर इस अतिरेक का क्या अर्थ है?
सारे विश्व में फुटबॉल या रग्बी को लेकर इस प्रकार का अतिरेक बना रहता है. फुटबॉल के खेल को तो कई देशों ने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया है. परंतु क्रिकेट को तो भद्र लोगों का खेल माना जाता रहा है. ऐसे में इसमें ऐसी उग्रता व व्यावसायिकता के प्रवेश का विस्तार से अध्ययन होना चाहिए. इसका भी अध्ययन होना चाहिए कि इस विस्तार के लिए मीडिया कितनी जिम्मेदार है? इसलिए कि पूरा व्यावसायिक विश्व आज मीडिया के कंधे पर ही सवारी कर रहा है. ऐसे में विश्लेषकों और क्रिकेट प्रशंसकों को कोई हक नहीं है कि वे खिलाड़ियों की व्यावसायिक गतिविधियों को समाप्त् या सीमित करने की बात भी करें. जब हम खिलाड़ियों से खेल नहीं, हमेशा चमत्कार की उम्मीद रखेंगे तो यह कैसे संभव है कि चमत्कारी व्यक्ति सामान्य व्यवहार करे. अपने आसपास की असुरक्षा को देखते हुए आम आदमी की तरह क्रिकेट खिलाड़ी भी सब कुछ जल्दी कर लेना चाहता है, तो क्या आश्चर्य?
वैसे मीडिया का क्रिकेट प्रेम भी नि:स्वार्थ नहीं है. वर्षोंा मेहनत कर मीडिया ने क्रिकेट नामक बंदर को अपने हित के लिए नचाया. आज उस मीडिया संचालित बंदर ने जब उसी को काटा तो तिलमिलाहट के साथ-साथ असुरक्षा की भावना भी मीडिया के सामने आयी. टीम इंडिया की हार से उनका लेना-देना मात्र इतना था कि उन्हें भरपूर विज्ञापन मिलें और कुछ दिनों के लिए भागमभाग से छुटकारा भी मिले. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि टीम इंडिया की हार ने सारे समीकरण बदल दिये. अब ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाये? इसी दौरान उपजी तात्कालिकता ने इसका एक अदभुत तर्क दिया (मजाक में ही सही) - इस हार की जिम्मेदारी स्व इंदिरा गांधी की है, न वे बांग्लादेश का निर्माण करतीं और हमें आज उससे पराजय का मुंह देखना पड़ता. है ना मजेदार तर्क!
बहरहाल बात मीडिया की हो या कृषि मंत्री की, यह तो अब सिद्ध हो ही चुका है कि दोनों ने देश-समाज द्वारा उनको सौंपी गयी मुख्य जिम्मेवारियों का निर्वाह भली प्रकार नहीं किया है. भविष्य में कौन किस तरह बर्ताव करेगा, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा. आप और हम सिर्फ आशा कर सकते हैं कि किसान, दलित, आदिवासी, महिलाएं, बच्च्े और पर्यावरण कभी मीडिया और सत्ता में उतनी प्रमुखता पा पायेंगे जितनी कि क्रिकेट को प्राप्त् है. वैसी संभावनाएं हमेशा शेष रहती हैं.
Thursday, April 26, 2007
बच्चन ने सब कुछ बेचा, अपनी हंसी भी.
पांच क रोड़ में बिका शादी का प्रसारण अधिकार !
खबर है कि अमिताभ बच्च्न ने अभिषेक और ऐश्वर्या की शादी के प्रसारण अधिकार ब्रिटेन स्थित एक चैनल, ट्रेवल एंड लिविंग, को पांच करोड़ में बेच दिया था. बॉलीवुड के आंतरिक सूत्रों के मुताबिक यह सौदा पांच करोड़ में तय हुआ है, हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि असली रकम इससे कहीं अधिक हो सकती है. यह पहले से ही माना जा रहा था कि बच्चन परिवार स्थानीय मीडिया को व्यापारिक कारणों से शादी की कवरेज से दूर रख रहा है.
फिल्म उद्योग के एक सूत्र का क हना है कि `यदि वे शादी का प्रसारण अधिकार पहले ही एक चैनल को बेच चुके थे तो वे स्थानीय मीडिया को इजाजत नहीं दे सकते थे.'
यहां तक कि वे फोटोग्राफर, जिन्होंने शादी की तसवीरें खींचीं, एक गोपनीय अनुबंध से बंधे थे कि वे मीडिया में उन तसवीरों को जारी नहीं क रेंगे. माना जाता है कि बच्चन परिवार ने पहले हैलो नाम की टॉप ब्रिटिश लाइफ स्टाइल पत्रिका से बातचीत की थी, पर मगर सौदा न हो सका. भारत स्थित एक टीवी नेटवर्क द्वारा भी प्रस्ताव भेजा गया था, मगर वह भी स्वीकृत नहीं हुआ. सूत्रों का कहना है कि बच्चन परिवार किसी विदेशी चैनल की तलाश में था.
यह भारतीय फिल्मोद्योग की दुनिया में अपनी तरह का पहला सौदा था. इससे पहले किसी भी शादी का प्रसारण अधिकार मीडिया को नहीं बेचा गया था. इस मामले में बच्चन परिवार ने लिज हर्ले और अरुण नायर की शादी से होड़ ली, जिन्होंने २० लाख पाउंड में अपनी शादी का प्रसारण अधिकार हैलो को बेचा था. मगर इसमें एक अंतर था. लिज हर्ले और अरुण नायर ने स्थानीय पत्रकारों के लिए भी तसवीरें खिचवायीं, जबकि बच्चन परिवार ने ऐसा नहीं किया.
तो देखा भाइयों, कैसे एक धन पशु, जिसे बाज़ार ने महानायक बना दिया है, अपनी खुशी (और मौका मिलेगा तो गम भी, जिसकी झलक हम उसके कवि पिता की मौत पर देख चुके हैं) के क्षणों को भी बेच कर नोट खडे़ कर करने को तैयार है. यह है हमारी 'कला' जिस पर हम नाज़ करते हैं.
बताता चलूं कि यह खबर टाइम्स आफ़ इंडिया में 24 अप्रैल को और प्रभात खबर में 25 को छपी है.
Sunday, April 22, 2007
पोंगापंडितों के लिए बदखबरी, अगिनखोर हाज़िर है
तो भाइयों, हाजिर है अगिनखोर. उनके लिए जो चाहते हैं कि मोहल्ले-बाज़ारों में खामोशी छा जाये और वहां केवल भजन-कीर्तन और जय-जयकारे ही गूंजें, यह शायद थोडा तकलीफ़देह होगा, क्योंकि वे अभी माफ़ीनामे की खुशी ही नहीं मना पाये हैं पूरी तरह.
अगिनखोर उन सभी मुद्दों पर बहस करने की कोशिश करेगा, जिनसे अपने समय का समाज प्रभावित होता है. यह बेहद ठोस रूप से मगर आवश्यक मुखरता से अपनी बातें रखेगा और उनके साथ कोई रियायत नहीं बरतेगा जिनमें इस देश में फ़ैली हज़ारों ज़हरीली शाखाएं अपना ज़हर भर रही हैं और वे खुद उनके प्रचारक बने हुए हैं. इसी तरह हम तालिबानी मुसलिम कट्टरता को भी नहीं स्वीकारेंगे और उसका भी विरोध करेंगे. मगर हमारी समझ है कि वर्तमान हालात में भारत में मुसलिम कट्टरता हिंदुत्ववादी कट्टरता की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है और फल-फूल रही है.
इसके अलावा ब्रह्मणवादी आतंक की भी हम मुखालिफ़त करेंगे.
...और अनगिनत मुद्दे हैं जिनपर हमारी नज़र रहेगी.
तो मिलते हैं.
अगिनखोर उन सभी मुद्दों पर बहस करने की कोशिश करेगा, जिनसे अपने समय का समाज प्रभावित होता है. यह बेहद ठोस रूप से मगर आवश्यक मुखरता से अपनी बातें रखेगा और उनके साथ कोई रियायत नहीं बरतेगा जिनमें इस देश में फ़ैली हज़ारों ज़हरीली शाखाएं अपना ज़हर भर रही हैं और वे खुद उनके प्रचारक बने हुए हैं. इसी तरह हम तालिबानी मुसलिम कट्टरता को भी नहीं स्वीकारेंगे और उसका भी विरोध करेंगे. मगर हमारी समझ है कि वर्तमान हालात में भारत में मुसलिम कट्टरता हिंदुत्ववादी कट्टरता की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है और फल-फूल रही है.
इसके अलावा ब्रह्मणवादी आतंक की भी हम मुखालिफ़त करेंगे.
...और अनगिनत मुद्दे हैं जिनपर हमारी नज़र रहेगी.
तो मिलते हैं.
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