Friday, April 27, 2007

क्रिकेट से परे भी है एक संसार

चिन्मय मिश्र

इन दिनों भारत का संपूर्ण मीडिया फिर चाहे अखबार हों या टेलीविजन, क्रिकेट विश्व कप की खबरों से सराबोर हैै. इसी से स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों माध्यमों के सामाजिक सरोकार अब न्यून से न्यूनतम हो गये हैं. एक तरह की होड़ इन माध्यमों में चल रही है कि कौन इस संबंध में कितनी सामग्री अपने दर्शकों/पाठकों को उपलब्ध करवा सकता है. ऐसा लग रहा है, मानो सारा देश मात्र क्रिकेट से ही संचालित होता हो. देश की सारी समस्याआें का हल यदि क्रिकेट की हार-जीत से होता हो, तो ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं है. सिर्फ मीडिया के ही साथ नहीं, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार, जो भूलवश देश के कृषि मंत्री भी हैं, के साथ भी ऐसा हुआ है. पिछले ३० महीनों के अपने कार्यकाल में उन्होंने कभी भी किसानों के संबंध में कोई निश्चयात्मक बात की हो, ध्यान में नहीं आता. जब देश में किसान प्रतिदिन खुदकुशी कर रहे हों, तब देश का कृषि मंत्री अपना ध्यान कहीं और लगा सकता है, यह सोच कर ही सिहरन होने लगती है.
इसी बीच नंदीग्राम की घटना में एक दर्जन से अधिक लोग मारे गये, पर उसे अपेक्षित कवरेज नहीं मिला. वहीं बॉब वूल्मर की मृत्यु/ हत्या को लेकर अखबारों के पहले से आखिरी पृष्ठ भरे पड़े थे; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पूरे बुलेटिन. दोनों घटनाओं की कोई तुलना तो नहीं है, परंतु दोनों घटनाओं के विश्लेषण में हुई असमानता हम सबके सामने है.
भारत की हार के बाद फैला आक्रोश तो हर कहीं दिखाया जा रहा है, परंतु देश में फैल रही व्यापक अराजकता पर कोई बात नहीं करता. इस बीच सबसे सुखद आश्चर्य की बात यह रही कि केंद्रीय खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर का इस संबंध में कोई वक्तव्य जारी नहीं हुआ, जो संभवत: पंचायतों और अन्य खेलों, जिन्हें प्रोत्साहन की आवश्यकता है, को लेकर थोड़े गंभीर जान पड़ते हैं. वैसे भी यह सच है कि क्रिकेट की वजह से अन्य खेलों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.
बहरहाल टीम इंडिया की पराजय के बाद पान दुकानों पर खड़े लोगों से लेकर सर्वोच्च् पदस्थ व्यक्ति तक अपने-अपने विश्लेषण सामने रख रहे हैं. लोगों ने भारतीय क्रिकेट को मृत घोषित कर सिर मुंडवा लिये हैं. क्रिकेट खिलाड़ियों के खिलाफ उग्र व अश्लील फब्तियों का अंबार लग गया है. आखिर इस अतिरेक का क्या अर्थ है?
सारे विश्व में फुटबॉल या रग्बी को लेकर इस प्रकार का अतिरेक बना रहता है. फुटबॉल के खेल को तो कई देशों ने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया है. परंतु क्रिकेट को तो भद्र लोगों का खेल माना जाता रहा है. ऐसे में इसमें ऐसी उग्रता व व्यावसायिकता के प्रवेश का विस्तार से अध्ययन होना चाहिए. इसका भी अध्ययन होना चाहिए कि इस विस्तार के लिए मीडिया कितनी जिम्मेदार है? इसलिए कि पूरा व्यावसायिक विश्व आज मीडिया के कंधे पर ही सवारी कर रहा है. ऐसे में विश्लेषकों और क्रिकेट प्रशंसकों को कोई हक नहीं है कि वे खिलाड़ियों की व्यावसायिक गतिविधियों को समाप्त् या सीमित करने की बात भी करें. जब हम खिलाड़ियों से खेल नहीं, हमेशा चमत्कार की उम्मीद रखेंगे तो यह कैसे संभव है कि चमत्कारी व्यक्ति सामान्य व्यवहार करे. अपने आसपास की असुरक्षा को देखते हुए आम आदमी की तरह क्रिकेट खिलाड़ी भी सब कुछ जल्दी कर लेना चाहता है, तो क्या आश्चर्य?
वैसे मीडिया का क्रिकेट प्रेम भी नि:स्वार्थ नहीं है. वर्षोंा मेहनत कर मीडिया ने क्रिकेट नामक बंदर को अपने हित के लिए नचाया. आज उस मीडिया संचालित बंदर ने जब उसी को काटा तो तिलमिलाहट के साथ-साथ असुरक्षा की भावना भी मीडिया के सामने आयी. टीम इंडिया की हार से उनका लेना-देना मात्र इतना था कि उन्हें भरपूर विज्ञापन मिलें और कुछ दिनों के लिए भागमभाग से छुटकारा भी मिले. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि टीम इंडिया की हार ने सारे समीकरण बदल दिये. अब ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाये? इसी दौरान उपजी तात्कालिकता ने इसका एक अदभुत तर्क दिया (मजाक में ही सही) - इस हार की जिम्मेदारी स्व इंदिरा गांधी की है, न वे बांग्लादेश का निर्माण करतीं और हमें आज उससे पराजय का मुंह देखना पड़ता. है ना मजेदार तर्क!
बहरहाल बात मीडिया की हो या कृषि मंत्री की, यह तो अब सिद्ध हो ही चुका है कि दोनों ने देश-समाज द्वारा उनको सौंपी गयी मुख्य जिम्मेवारियों का निर्वाह भली प्रकार नहीं किया है. भविष्य में कौन किस तरह बर्ताव करेगा, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा. आप और हम सिर्फ आशा कर सकते हैं कि किसान, दलित, आदिवासी, महिलाएं, बच्च्े और पर्यावरण कभी मीडिया और सत्ता में उतनी प्रमुखता पा पायेंगे जितनी कि क्रिकेट को प्राप्त् है. वैसी संभावनाएं हमेशा शेष रहती हैं.

1 comment:

36solutions said...

चलिए खुशी हुई आप भी हमारी तरह सोंचते हैं नही तो आज के इस दौर में क्रिकेट से परे सोंचने का फुरसत ही किसे है