Monday, April 30, 2007

गुजरात : हिंदूत्ववादी तालिबानों का झूठ पकडा़या

वंजारा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह राज्य मंत्री अमित शाह के चहेते अफ सर के रूप में मशहूर थे.
अहमदाबाद: गत मंगलवार को गुजरात पुलिस ने डेपुटी इंस्पेक्टर जेनरल(बॉर्डर रेंज) डीजी वंजारा, पुलिस अधीक्षक (इंटेलीजेंस ब्यूरो) राजकुमार पांडियन और राजस्थान पुलिस के एमएन दिनेश कुमार को सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के आरोप में गिरफ्तार क र लिया.
26 नवंबर, 2005 को एक फ र्जी मुठभेड़ में गुजरात पुलिस ने सोहराबुद्दीन को मार गिराया था. सुप्रीम कोर्ट के सामने गुजरात सरकार ने इसे स्वीकार भी कि या था. गुजरात सरकार के वकील एटीएस तुलसी ने अदालत में क हा, ` प्रारंभिक जांच में पाया गया कि यह एक फर्जी मुठभेड़ था.'
स्वयं सरकार द्वारा सनसनीखेज स्वीकारोक्ति कपटपूर्ण रही है, क्योंकि वंजारा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह राज्य मंत्री अमित शाह के चहेते अफसर के रूप में मशहूर थे. तो फि र क्यों गुजरात सरकार ने एपेक्स कोर्ट के सामने यह स्वीकार किया कि राज्य के वरिष्ठ पुलिस अफ सरों ने सोहराबुद्दीन को मारा है?
राज्य के कांग्रेस नेता अर्जुन मोढ़ावाडिया ने पहले ही आरोप लगाया है कि सरकार गृहमंत्री को बचाने के लिए पुलिस अफ सरों को गिरफ्तार कर रही है.
गांधीनगर में एक स्रोत के अनुसार, ` राजस्थान भाजपा के एक वरिष्ठ नेता को इस मामले में अपना नाम घसीटे जाने का भय है. मामले को बिगड़ने से रोक ने या राजनीतिक होने से बचने के लिए पुलिस अफसर गिरफ्तार कि ये गये हैं. याद कीजिए, वंजारा और पांडियन के साथ-साथ राजस्थान के आइपीएस अफसर दिनेश कुमार को भी गिरफ्तार किया गया है.''
जिस `मुठभेड़' को अब फर्जी बताया गया है, वह गुजरात और राजस्थान पुलिस का संयुक्त अभियान था. पुलिस ने दावा कि या था कि शेख लश्क र-ए-तय्यबा का कारकुन था और जब वह भागने की कोशिश कर रहा था, तब अहमदाबाद में विशाला सर्किल के पास मारा गया.
शेख के मारे जाने के बाद उसकी पत्नी कौसर बी गायब हो गयी थी. सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन ने सुप्रीम क ोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें दावा किया गया था कि गुजरात पुलिस की मुठभेड़ फर्जी थी और वह जानना चाहते थे कि उनकी भाभी कौसर बी क हां है.
यही वह सवाल है, जिसका जवाब गुजरात सरकार नहीं देना चाहती है.
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद मार्च, 2007 में जांच का आदेश दिया गया. नतीजतन, गुजरात सरकार अदालत में यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हुई कि यह एक फर्जी मुठभेड़ थी, और वह इस मामले में अपने अफसरों क ी तहकीकात क र रही है.
इसमें दिलचस्प बात यह है कि प्रशांत दयाल नामक पत्रकार, जो क भी रिक्शाचालक थे, ने इस सनसनीखेज गिरफ्तारी के पीछे साहसी भूमिका निभाई.
गुजरात पुलिस ने मीडिया को बताया था कि पाकि स्तान स्थित आतंक वादी संगठन लश्क र-ए-तय्यबा के साथ सोहराबुद्दीन का संबंध था. मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से सोहराबुद्दीन राजस्थान से गुजरात आया था. उसके बारे में राजस्थान पुलिस ने गुजरात पुलिस को जानकारी दी थी. यहां तक कि राजस्थान पुलिस ने उसे पक ड़ने के संयुक्त ऑपरेशन के दौरान उसकी पहचान करने के लिए गुजरात पुलिस का साथ दिया था. जब वह मोटरसाइकिल से भागने की कोशिश क र रहा था, तभी वह मारा गया.
दयाल गुजराती दैनिक दिव्य भास्क र में वरिष्ठ संवाददाता का काम क रते हैं. उन्होंने ही सबसे पहले नवंबर 2006 में यह स्टोरी ब्रेक की थी. दयाल ने `रिडिफ .क ॉम' क ो बताया, ``पुलिस के बयान और असलियत बिलकुल ही भिन्न हैं. जितना दिखता है उससे कहीं ज्यादा है कहानी. आरोप लगाया गया कि सोहराबुद्दीन राजस्थान में बड़ा गुंडा था. वह संगमरमर के बड़े व्यापारियों और बड़े बिल्डरों से फिरौती वसूलने के धंधे में लगा था. गुजरात पुलिस में मेरे सूत्रों ने बताया कि सोहराबुद्दीन को मारने के लिए राजस्थान के कुछ लोगों ने 2 क रोड़ रुपये की सुपारी की व्यवस्था की थी. मगर जगह राजस्थान की बजाय गुजरात चुना गया. ''
हालांकि ठोस सबूतों के अभाव की वजह से प्रशांत ने उन लोगों के नाम बताने से इन्कार क र दिया, जिन्होंने सोहराबुद्दीन को मारने के लिए सुपारी दी थी.
जैसे-जैसे चीजें साफ होंगी, गुजरात सरकार के लिए परेशानियां बढ़ेंगी. पिछले चार वर्षों में कम से क म छह मुठभेड़ हुए हैं. इन सब के बारे में पुलिस ने आतंक वादियों को मारने का दावा कि या, जो क थित रूप से मोदी को मारने की योजना में संलग्न थे.
दयाल ने बताया, ` पुलिस ने सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी के साथ-साथ तुलसी प्रजापति, जो उसकी पत्नी की सहेली थी, को महाराष्ट्र में सांगली के पास बस से उतार लिया. पुलिस अफसर गीता जौहरी की जांच से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये. पुलिस अधिकारी उन तीनों को अहमदाबाद के पास एक फार्महाउस में ले गये, जहां उनको यातनाएं दी गयीं. और फिर सोहराबुद्दीन को एक फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया. इसके बाद पुलिस अफ सरों को भय हुआ कि कौसर बी कहीं सब कुछ बता न दे. संभवत: उसका भी खात्मा कर दिया गया. कोई नहीं जानता कि उसका क्या हुआ. उस वक्त तुलसी को जाने दिया गया, चूंकि वह वनजारा की मुखबिर थी. मगर, जब अखबारों ने फ र्जी मुठभेड़ के बारे में छापना शुरू कि या तो तुलसी के मारे जाने की भी खबर आयी. हमें बताया गया कि वह भी बनासकांठा जिले में एक मुठभेड़ में मारा गया. बनासकांठा जिला वनजारा के अधिकारक्षेत्र में आता है.
दयाल ने बताया कि जब उसने पहली बार स्टोरी फाइल की तो संपादक भी दुविधा में थे, क्योंकि इस तरह के अपराधों के दस्तावेजी सबूत नहीं हो सकते थे. दयाल ने बताया कि `` मुझे पुलिस अधिकारियों के साथ शराब पीने की आदत लग गयी थी, मैं एक निश्चित सीमा के अंदर पीता था, ताकि सुन और समझ सकूं कि पुलिस अफ सर पीने के बाद क्या बोलते हैं.''
प्रशांत ने बताया कि एक शाम सोहराबुद्दीन मुठभेड़ के मामले में संलग्न पुलिस अधिकारियों ने शेखी बघारते हुए बताया कि कैसे उन्होंने उसे `दंडित' कि या और राष्ट्रविरोधी तत्व को खत्म कि या.
दयाल ने अगली सुबह इस सुराग के साथ मामले के अन्य विवरण का मिलान कि या. उसने बताया कि `` अहमदाबाद के एक फार्महाउस से मुझे सूचना मिली कि तीन लोग वहां बंदी बना क र रखे हुए थे. फिर वनजारा के गांव के मेरे सूत्र से मुझे मालूम हुआ कि उन दिनों वनजारा अपनी टीम के साथ वहां था. फार्महाउस के नौकर से पता चला कि वहां एक बुरकानशीन महिला को रखा गया था. मुझे संदेह हुआ कि वह कौसर बी ही होनी चाहिए. नशे की अवस्था में पुलिस अधिकारियों ने जितनी बातें बतायी थीं, वो सब की सब बातें मिलती चली गयीं.

फरजी मुठभेड़ का परदाफाश करनेवाला पत्रकार

दयाल ने भी अपनी छोटी-सी जिंदगी में बहुत कुछ झेला है. वह अपनी पढ़ाई-लिखाई में बहुत ही कमजोर था. आठवीं क क्षा में सभी विषयों में फेल कर गया था. तब उसने तय किया कि वह अपनी पढ़ाई का खर्चा खुद निकालेगा, माता-पिता की गाढ़ी कमाई नहीं बरबाद क रेगा. उसने गैरेज में काम क रना शुरू कि या. जब वह क ालेज में था तो रात में ऑटोरिक्शा चलाया क रता था. पत्रकारिता की डिग्री हासिल करने के बाद उसे एक नौकरी हासिल तो हुई, परंतु वेतन देने से मालिकोंने मना क र दिया था, जो कि गुजरात की पत्रकारिता में बहुत ही आम बात है. ट्रेनी और स्ट्रिंगरों को क भी-क भार ही पैसे दिये जाते हैं. इसकी बजाय उन्हें विज्ञापन लाने को कहा जाता है, जिस पर कमीशन मिलने से उन्हें आमदनी होती है.
परंतु दयाल इतने उत्साही थे कि रिपोर्टर के रूप में नाम कमाने के लिए उन्होंने एक वर्ष से अधिक तक बिना वेतन के काम कि या. नतीजतन, दिन में अखबार के लिए काम क रने के बाद रात में ऑटोरिक्शा चलाने का क ाम जारी रखना पड़ा. पत्रकारिता के अपने 19 वर्षीय कैरियर में दयाल ने 14 बार अपना काम बदला. वे कहते हैं- अपने कैरियर में मुझे क भी बोनस या इन्क्रीमेंट नहीं मिला, क्योंकि मैं कभी कि सी अखबार में जम कर नहीं रह सका. हर रोज मैं अपने संपादकों से स्टोरी के लिए लड़ा करता था.''
उसने अपराध संवाददाता के रूप में ख्याति प्राप्त की है. खोजी पत्रकारिता के लिए भी उसे जाना जाता है. वे अपने क ॉलम `जीवती वार्ता' के लिए भी जाने जाते हैं. दयाल मानते हैं कि राज्य सरकार जो कुछ भी कर रही है , वह सिर्फ इसलिए कि दोषियों को बचाया जा सके. परंतु मुझे पक्का यकीन है कि निकट भविष्य में और भी गिरफ्तारियां होंगी और बड़े नाम भी सामने आएंगे.

3 comments:

चंद्रभूषण said...

lomharshak jankari hai. kisi bhi akhbar me abhi tak gujrat sarkar dwara kausar bi ki hatya ki sweekarokti se aage koi khabar nahi padha. bahut-bahut dhanyavaad. keep it up!

Atul Sharma said...

आपके मतभेद संघ से हों इसमें कोई समस्या नहीं है। आप इस आपराधिक घटनाक्रम को हिन्दु-मुसलमान के नज़रिए से न देखें। सोहराबुद्दीन का मूल निवास मेरे शहर के पास ही था और वह यहाँ का हिस्ट्रीशीटर था और तुलसी प्रजापति कौसर बी की सहेली नहीं बल्कि एक पुरुष था और सोहराबुद्दीन का साथी था यह भी एक हिस्ट्रीशीटर गुंडा था। आप बिना जानकारी के लिखेंगे तो लोग ग़लत को भी सही समझेंगे। पुलिस कई बार एनकाउंटर करती है हो सकता है कई बार फ़र्जी रहे हों पर इस घटनाक्रम को धर्म से क्यों जोड़ते हैं।
विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं।
http://malwa.wordpress.com/2007/05/02/modi-and-gujrat/

अगिनखोर said...

अतुल जी
आपने सोह्राबुद्दन का जो प रिचय दिया है वह शायद अखबारों की कतरनों के आधार पर है. मैं ख जानता हूं ( और यह वे सब जानते हैं जो आज मीडिया पर गहरी नज़र रखते हैं) कि खबरें किस तरह बनती हैं और किसि का परिचय किस तरह गढा जाता है. सारे अखबार और दूसरे संचार माध्यम अब पुलिस और प्रशासन को ही मुख्य स्रोत और संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते हैं उसी पर आधारित हैं. ऐसे में उनके आधार पर किसी के बारे में धारणा बनाना ठीक नहीं है. और अगर सोहराबुद्दीन इतना ही बडा़ आतंकवादी था तो फिर उसे अदालत में साबित क्यों नहीं किया सरकार ने जबकि वह कर सकती थी( गुजरात दंगों के मामले में यही तो किया जा रहा है). अगर मान भी लें कि वह दोषी था तो क्या किसी को मार देने का हक पुलिस के पास है या होना चाहिए?
अगर यह मामला धर्म से ही जुडा़ हुआ है तो इसे मैं दोबारा कैसे जोड़ सकता हूं? आप कहते हैं कि यह धर्म से जुडा़ मामला नहीं है. क्या आप बतायेंगे कि फ़िर ऐसा क्यों है कि अब तक गुजरात में सारे एनकाउंटरों में (वे भी खोजे जायें तो फ़रजी निकलेंगे) मारे गये लोग मुसलमान ही थे? दूसरे धर्म का एक भी बंदा नहीं? क्यों?