शशिधर खां
इस बीच तिरंगे से जुड़ी राष्ट्रीय भावना का इतना जोर-शोर से प्रचार हुआ कि लगा, मानो वाकई लोगों के मन में इसके प्रति सम्मान का भाव जगाने की कोशिश की जा रही है. मगर क्या यह सच है? जब देश भर के अखबारों में लोग मॉडलिंग गर्ल बीना रमानी द्वारा तिरंगे की बिकनी पहनकर पर्दे पर आने, एंकर मंदिरा बेदी के तिरंगे की प्रिंटवाली साड़ी पहनकर शो करने और सचिन तेंडुलकर द्वारा विदेश में तिरंगे के आकार का केक काटे जाने को लेकर मजे ले-लेकर चर्चा कर रहे थे, उसी समय भारतीय आजादी की पहली लड़ाई की 150वीं वर्षगांठ मनाने के लिए मेरठ से दिल्ली के लाल किले तक की यात्रा में शामिल युवकों द्वारा रद्दी की तरह तिरंगा फेंक दिये जाने पर कहीं कोई हंगामा नहीं हुआ. रमानी, मंदिरा और तेंडुलकर द्वारा राष्ट्रीय झंडे का अपमान किये जाने के खिलाफ सबसे ज्यादा बौखलाने वाले स्वयंसेवकों तथा शिव सैनिकों का ध्यान इस ओर नहीं गया. ऐसा नहीं माना जा सकता कि यह जानकारी राष्ट्रीय भावना के इन स्वयंभू ठेकेदारों तक नहीं पहुंची होगी. फिर इस बात को लेकर बवाल क्यों नहीं हुआ, जबकि तिरंगा हाथ में लेकर चलने की महज औपचारिकता पूरी करने के लिए पहली गदर का जश्न मनाने देश भर से जुटे आजादी के इन आधुनिक दीवानों ने अपने राष्ट्रीय ध्वज को ऐसे फेंक दिया, जैसे लोग कागज की पुड़िया मूंगफली और भूंजा खाकर सड़कों पर या सार्वजनिक स्थलों पर फेंकते हैं. नाम या बदनाम भले शिव सैनिकों या स्वयंसेवकों का होता हो, लेकिन देश में ऐसे बहुतेरे लोग हैं, जिन्हें राष्ट्रीय भावना की बड़ी-फिक्र है. इस फिक्र की बौखलाहट को प्रचारित करने का उनका अंदाज भी निराला है. इस मामले में किसी ने सवाल उठाया, क्योंकि इसमें वह रंग नहीं आ सकता था, जो बीना रमानी के तिरंगे की बिकनी, मंदिरा बेदी की साड़ी की प्रिंट और सचिन के बर्थडे केक के तिरंगे वाले आकार में आया. ये सारे मामले कोर्ट में आ चुके हैं. कांग्रेस द्वारा पार्टी झंडे के रूप में राष्ट्रीय ध्वज के इस्तेमाल का मामला भी कोर्ट में विचाराधीन है. हमारा समाज अब इतना एडवांस हो चुका है कि अगर बस चले तो राष्ट्रीय भावना के कतिपय ठेकेदार किसी महिला की तिरंगे के रंग की प्रिंटवाली पैंटी या ब्रा और किसी पुरुष के जांघिया का फोटो खींचकर कोर्ट में पेश कर दें. इसलिए कि कानूनन ऐसा करने पर रोक है. राष्ट्रीय ध्वज अधिनियम 1971 में इस आशय का संशोधन करके सरकार को 2005 में एक नया कानून बनाना पड़ा, जिसमें तिरंगे का ऐसा इस्तेमाल रोकने के लिए दंड का विधान है. जैसे लोगों के ऐसा करने पर जनहित याचिका दायर करने वाले का नाम भी अखबार में छपता है, उन्हें सार्वजनिक रूप से कुछ भी करने पर परहेज नहीं है. मामला है कि ब्रा, पैंटी, रूमाल (वह भी महिला का) और जांघिया से जुड़ा तिरंगे के अपमान में जो फ्लेवर आयेगा, वह रद्दी की तरह मोड़-माड़कर फेंके जाने पर नहीं आ सकता, जैसा करने की भी कानूनन मनाही है. प्रश्न है कि राष्ट्रीय भावना की आखिर परिभाषा क्या हो और किस घटना को इसका अपमान माना जायेगा. राष्ट्रीय भावना का नैतिक और धार्मिक भावना से क्या तालमेल है? एक जगजाहिर तसवीर तो यह उभरती है कि राष्ट्रीय भावना का ऐसी किसी घटना से जुड़ा होना जरूरी है, जिसकी `सभ्य' समाज में कथित रूप से इजाजत नहीं है. वैसी घटना से जुड़ी हस्ती (खासकर मॉडल और स्टार) का विदेशों में अपमान हमारे यहां राष्ट्रीय भावना से जुड़ जाता है और वह तत्काल राष्ट्रीय अपमान की श्रेणी में आ जाता है. शिल्पा शेट्टी ने अपनी करोड़ों की कमाई के लिए लंदन में बिग ब्रदर शो किया और उसके साथ हमसफर प्रतियोगिता में शामिल जेड गूडी ने भद्दी गाली दे दी तो राष्ट्रीय अपमान का विषय हो गया. सरकार भी ऐसे हरकत में आ गयी जैसे वास्तव में यह राष्टट्रीय भावना को ठेस पहुंचाने वाली बात हो. मानो शिल्पा शेट्टी का वह शो देश के कल्याण वाला कोई राष्ट्रीय समारोह हो. विदेश मंत्रालय ने ब्रितानी उच्चयोग से क्षमा याचना मंगवायी. लगा जैसे इससे देश का अपमान हुआ हो, लेकिन कमाल की बात तो यह है कि उसी जेड गुडी को लंदन स्थित भारतीय दूतावास ने पर्यटन मंत्रालय की ओर से आयोजित समारोह में आमंत्रित किया. फिर जब जेड गुडी भारत आयी, तो मुंबई और दिल्ली में उसका भव्य स्वागत किया गया. उसी समय ब्रिटेन की सरकार ने अपने यहां काम कर रहे 30 हजार से ज्यादा भारतीय डॉक्टरों और इंजीनियरों को देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया. मगर इस मुद्दे पर देश भर में शिल्पा शेट्टी टाइप गरमागरम चर्चा नहीं हुई. है न कमाल की बात. अब क्या यह बहस आवश्यक नहीं कि राष्ट्रीय भावना का मतलब क्या है?
तिरंगेवाली फोटो यहां से ली गयी है.
Sunday, May 27, 2007
Friday, May 18, 2007
अगर कोई नहीं संभले तो...?
आजकल चिट्ठाकार दो-दो शब्दों पर नहीं शायद दो-दो हाथ कर लेने पर यकीन रखते हैं. तभी तो वे धमकियाते हैं- संभल जाओ वर्ना... कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसे लोगों के पास कोई खास तथ्य या दलील नहीं होती. इसीलिए वे तर्क के बजाय वितंडावाद पर ज़्यादा भरोसा करते हैं.
तो ऐसे लोग ब्लाग जगत में बहुत हैं. और आप उनकी निंदा भी नहीं कर सकते. वे आपको ललकारने लगेंगे-संभल जाओ वरना. हिंदी चिट्ठाकारी के ये अलाना -फलाना, वगैरह-वगैरह ( माफ़ कीजिए, नाम इसलिए नहीं दिये जा रहे क्योंकि इनमें से कुछ ने शायद अपने नाम को पेटेंट करा रखा है और कुछ ने शायद आवेदन दिया हुआ है, अत: हम इनके नाम बिना इनकी लिखित पूर्वानुमति के नहीं ले सकते और हमारा इरादा किसी मुकदमें में फंसने का बिलकुल नहीं है. क्या पता पेटेंट कानून की जगह पोटा कानून से मिलते-जुलते किसी कानून के तहत हमारा एनकाउंटर ही करा दिया जाये. एक राज्य विशेष में तो इसका ठेका मुख्यमंत्री तक लेते हैं, सुना है) .
तो भय्ये, आप बोल नहीं सकते किसी केसरिया रंग में रंगे ब्लाग के खिलाफ़ और न ही किसी भगवा (हत्यारे) मुख्यमंत्री के खिलाफ़, क्योंकि यह देश अपनी आज़ादी की पहली लड़ाई की 150 वीं सालगिरह मना रहा है और इसे आज़ादी का अपच हो गया है. यहां अभी सबके बोलने पर पाबंदी लग जायेगी.
तो भाइयों जिसको संभलना हो वे संभलें ( अविनाश हो सकता है फिर माफ़ी मांग लें ) मगर आप ऐसे ललकारेंगे तो हम नहीं संभलेंगे बल्कि आपकी और मुखालिफ़त करेंगे. और ऐसा करते वक्त बिल्कुल विनम्र और संयत रहेंगे हम.
और हां, एक बात और. हमें आपके विचारों से विरोध है. आपसे नहीं.
तो ऐसे लोग ब्लाग जगत में बहुत हैं. और आप उनकी निंदा भी नहीं कर सकते. वे आपको ललकारने लगेंगे-संभल जाओ वरना. हिंदी चिट्ठाकारी के ये अलाना -फलाना, वगैरह-वगैरह ( माफ़ कीजिए, नाम इसलिए नहीं दिये जा रहे क्योंकि इनमें से कुछ ने शायद अपने नाम को पेटेंट करा रखा है और कुछ ने शायद आवेदन दिया हुआ है, अत: हम इनके नाम बिना इनकी लिखित पूर्वानुमति के नहीं ले सकते और हमारा इरादा किसी मुकदमें में फंसने का बिलकुल नहीं है. क्या पता पेटेंट कानून की जगह पोटा कानून से मिलते-जुलते किसी कानून के तहत हमारा एनकाउंटर ही करा दिया जाये. एक राज्य विशेष में तो इसका ठेका मुख्यमंत्री तक लेते हैं, सुना है) .
तो भय्ये, आप बोल नहीं सकते किसी केसरिया रंग में रंगे ब्लाग के खिलाफ़ और न ही किसी भगवा (हत्यारे) मुख्यमंत्री के खिलाफ़, क्योंकि यह देश अपनी आज़ादी की पहली लड़ाई की 150 वीं सालगिरह मना रहा है और इसे आज़ादी का अपच हो गया है. यहां अभी सबके बोलने पर पाबंदी लग जायेगी.
तो भाइयों जिसको संभलना हो वे संभलें ( अविनाश हो सकता है फिर माफ़ी मांग लें ) मगर आप ऐसे ललकारेंगे तो हम नहीं संभलेंगे बल्कि आपकी और मुखालिफ़त करेंगे. और ऐसा करते वक्त बिल्कुल विनम्र और संयत रहेंगे हम.
और हां, एक बात और. हमें आपके विचारों से विरोध है. आपसे नहीं.
Monday, May 14, 2007
पाखंड का पर्याय बन गया है धर्म
स्वामी अग्निवेश
पिछले एक-डेढ़ दशक में उदारीकरण से उपजे उपभोक्तावाद की आंधी में धर्म का एक संगठित स्वरूप सामने आया है. अरबों डॉलर के सालाना कारोबार वाले इस व्यवसाय को सोल सेविंग, यानी आत्मा की सुरक्षा की गारंटी करने का आध्यात्मिक नाम दिया गया है. पर वास्तव में यह आत्मा की रक्षा करने वाला उद्योग बन गया है. बीते दिनों एक न्यूज चैनल द्वारा भारत के आधा दर्जन से अधिक कथित धर्माचार्यों, प्रवचनकर्ताओं को काले धन को सफेद करने की सौदेबाजी करते हुए दिखाने के बाद धर्म के इस संगठित उद्योग का वह विद्रूप सामने आया है, जो प्रकारांतर से धर्म व अध्यात्म की जड़ों को खोखला कर रहा था. धर्म को संगठित स्वरूप देने में जो धर्माचार्य सक्रिय हैं, वे दरअसल एक बिचौलिये या एक व्यापारी की भूमिका में आ गये हैं. वे भक्तों या श्रद्धालुओं से कहते हैं कि मेरी शरण में आओ तो तुम्हें मुक्ति दिलायेंगे. धर्म की सबसे बुनियादी बात और शर्त यह है कि वह पाखंड से रहित होना चाहिए और उसके भीतर अन्याय से लड़ने की भावना होनी चाहिए. आज इसके उल्टा देखने को मिल रहा है. धर्म पाखंड का पर्याय बनता जा रहा है और इसे संगठित करने वाले धर्माचार्य अपने आचरण से धर्म को अन्याय, भ्रष्टाचार और पाखंड का गढ़ बनाते जा रहे हैं. सच यह है कि साधारण मनुष्य को ईश्वर की उपासना करने के लिए किसी बिचौलिये की जरूरत नहीं होनी चाहिए. यह धर्म का मूल तत्व है. लेकिन अगर हर आदमी ऐसा मानने लगे और स्वयं ही ईश्वर की उपासना करने लगे तब तो धर्म के ठेकेदारों की सारी दुकानदारी बंद हो जायेगी. इसलिए वे सामान्य मनुष्यों को बेवकूफ बना कर अपनी नाना प्रकार की वासनाओं की तुष्टि करते हैं. इसका सबसे बड़ा खतरा वह नहीं है, जो दिख रहा है. धर्माचार्य करोड़ों रुपये का लेन-देन कर रहे हैं, वह तो इस पूरे व्यवसाय का एक पहलू है.
धर्म-अध्यात्म को व्यवसाय बना देने से सबसे बड़ा खतरा धर्म में अंतर्निहित शक्ति और आध्यात्मिक तत्वों के लिए पैदा हो रहा है. इसलिए कि ये धर्माचार्य अपने स्वार्थ के लिए न्यायकारी ईश्वर को भी पक्षपाती, खुशामदपसंद और अन्याय व अपराध का माफीनामा देने वाला बनाते जा रहे हैं. वे किसी न किसी तरह से श्रद्धालुओं को समझाते हैं या सीधे तौर पर कहते हैं कि पूजा-पाठ करो, चढ़ावा दो तो वे ईश्वर से उनका पाप माफ करवा देंगे. यह धर्म का स्थापित तत्व है कि पाप कभी माफ नहीं होता. पर इसके नाम पर धर्माचार्य फीस वसूलते हैं, जिससे उनके पास करोड़ों रुपये जमा होते हैं. न्यूज चैनल ने जो खेल दिखाया है, वह इसके आगे की कड़ी है. पाप को पुण्य में बदलने के लिए धर्माचार्य अपने भक्तों का काला धन इकट्ठा करते हैं और फिर उन्हें किसी तरीके से सफेद करते हैं. चैनल ने जो दिखाया वह इसी का विस्तार है. भक्तों के काले धन से अपना खजाना भरना, फिर उसे सफेद बनाना और साथ-साथ एक धंधे के रूप में इसे विकसित करना, इस तरह से यह पूरी शृंखला विकसित होती है. भारत में आस्था का सवाल ऐसा है कि लोग आमतौर पर इस पर सवाल नहीं उठाते हैं. इससे इन कथित धर्माचार्यों को मनमानी करने का मौका मिल जाता है. वे धर्म की आड़ में धन का खेल कर रहे हैं. इसका दूसरा पहलू है राजनेता-धर्माचार्य गंठजोड़ का. देश के लगभग सारे राजनेता किसी न किसी धर्माचार्य या प्रवचनकर्ता की शरण में हैं. वे भक्ति भाव से कम और अपनी जरूरतों के लिए ज्यादा उनके साथ जुड़ते हैं. नेताओं की इस भक्ति- प्रदर्शन से ही आम लोगों को बेवकूफ बनाना आसान हो जाता है. आम आदमी जब देखता है कि उसका प्रतिनिधि या कोई बड़ा नेता अमुक धर्माचार्य को साष्टांग कर रहा है, तो वह भी उस धर्माचार्य की शरण में जाता है, जहां उसे उसकी सारी समस्याओं से छुटकारा दिलाने का आश्वासन दिया जाता है. अभी तो चैनल ने सिर्फ हिंदू धर्म के भीतर की इस विकृति को उजागर किया है, लेकिन यह विकृति सभी धर्मों में आ गयी है. कई कारणों से धर्म के प्रति लोगों का रुझान भी बढ़ा है. धर्माचार्य इसे सकारात्मक दिशा दे सकते हैं, लेकिन वे इसका फायदा उठाने की ही कोशिश करते हैं. सभी धर्मों में इसके अपवाद भी हैं. बहुत से लोग ऐसे मिलेंगे, जो धर्म के पाखंड या अंधविश्वास के बजाय उसके आध्यात्मिक स्वरूप का प्रचार करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है. धर्म का विद्रूप स्वरूप निस्संदेह आज सभी धर्मों के लिए चिंता की बात है. इसका विस्तार पूरे देश में है और दुनिया भर में फैला हुआ है. इसे रोकने की जिम्मेदारी हर जागरूक नागरिक की है और पाखंड रहित धर्म का प्रचार करने वालों को भी इसे रोकने के प्रयास करने चाहिए.
भला यह लोगों को मूर्ख बनाना नहीं तो और क्या है?
पिछले एक-डेढ़ दशक में उदारीकरण से उपजे उपभोक्तावाद की आंधी में धर्म का एक संगठित स्वरूप सामने आया है. अरबों डॉलर के सालाना कारोबार वाले इस व्यवसाय को सोल सेविंग, यानी आत्मा की सुरक्षा की गारंटी करने का आध्यात्मिक नाम दिया गया है. पर वास्तव में यह आत्मा की रक्षा करने वाला उद्योग बन गया है. बीते दिनों एक न्यूज चैनल द्वारा भारत के आधा दर्जन से अधिक कथित धर्माचार्यों, प्रवचनकर्ताओं को काले धन को सफेद करने की सौदेबाजी करते हुए दिखाने के बाद धर्म के इस संगठित उद्योग का वह विद्रूप सामने आया है, जो प्रकारांतर से धर्म व अध्यात्म की जड़ों को खोखला कर रहा था. धर्म को संगठित स्वरूप देने में जो धर्माचार्य सक्रिय हैं, वे दरअसल एक बिचौलिये या एक व्यापारी की भूमिका में आ गये हैं. वे भक्तों या श्रद्धालुओं से कहते हैं कि मेरी शरण में आओ तो तुम्हें मुक्ति दिलायेंगे. धर्म की सबसे बुनियादी बात और शर्त यह है कि वह पाखंड से रहित होना चाहिए और उसके भीतर अन्याय से लड़ने की भावना होनी चाहिए. आज इसके उल्टा देखने को मिल रहा है. धर्म पाखंड का पर्याय बनता जा रहा है और इसे संगठित करने वाले धर्माचार्य अपने आचरण से धर्म को अन्याय, भ्रष्टाचार और पाखंड का गढ़ बनाते जा रहे हैं. सच यह है कि साधारण मनुष्य को ईश्वर की उपासना करने के लिए किसी बिचौलिये की जरूरत नहीं होनी चाहिए. यह धर्म का मूल तत्व है. लेकिन अगर हर आदमी ऐसा मानने लगे और स्वयं ही ईश्वर की उपासना करने लगे तब तो धर्म के ठेकेदारों की सारी दुकानदारी बंद हो जायेगी. इसलिए वे सामान्य मनुष्यों को बेवकूफ बना कर अपनी नाना प्रकार की वासनाओं की तुष्टि करते हैं. इसका सबसे बड़ा खतरा वह नहीं है, जो दिख रहा है. धर्माचार्य करोड़ों रुपये का लेन-देन कर रहे हैं, वह तो इस पूरे व्यवसाय का एक पहलू है.
धर्म-अध्यात्म को व्यवसाय बना देने से सबसे बड़ा खतरा धर्म में अंतर्निहित शक्ति और आध्यात्मिक तत्वों के लिए पैदा हो रहा है. इसलिए कि ये धर्माचार्य अपने स्वार्थ के लिए न्यायकारी ईश्वर को भी पक्षपाती, खुशामदपसंद और अन्याय व अपराध का माफीनामा देने वाला बनाते जा रहे हैं. वे किसी न किसी तरह से श्रद्धालुओं को समझाते हैं या सीधे तौर पर कहते हैं कि पूजा-पाठ करो, चढ़ावा दो तो वे ईश्वर से उनका पाप माफ करवा देंगे. यह धर्म का स्थापित तत्व है कि पाप कभी माफ नहीं होता. पर इसके नाम पर धर्माचार्य फीस वसूलते हैं, जिससे उनके पास करोड़ों रुपये जमा होते हैं. न्यूज चैनल ने जो खेल दिखाया है, वह इसके आगे की कड़ी है. पाप को पुण्य में बदलने के लिए धर्माचार्य अपने भक्तों का काला धन इकट्ठा करते हैं और फिर उन्हें किसी तरीके से सफेद करते हैं. चैनल ने जो दिखाया वह इसी का विस्तार है. भक्तों के काले धन से अपना खजाना भरना, फिर उसे सफेद बनाना और साथ-साथ एक धंधे के रूप में इसे विकसित करना, इस तरह से यह पूरी शृंखला विकसित होती है. भारत में आस्था का सवाल ऐसा है कि लोग आमतौर पर इस पर सवाल नहीं उठाते हैं. इससे इन कथित धर्माचार्यों को मनमानी करने का मौका मिल जाता है. वे धर्म की आड़ में धन का खेल कर रहे हैं. इसका दूसरा पहलू है राजनेता-धर्माचार्य गंठजोड़ का. देश के लगभग सारे राजनेता किसी न किसी धर्माचार्य या प्रवचनकर्ता की शरण में हैं. वे भक्ति भाव से कम और अपनी जरूरतों के लिए ज्यादा उनके साथ जुड़ते हैं. नेताओं की इस भक्ति- प्रदर्शन से ही आम लोगों को बेवकूफ बनाना आसान हो जाता है. आम आदमी जब देखता है कि उसका प्रतिनिधि या कोई बड़ा नेता अमुक धर्माचार्य को साष्टांग कर रहा है, तो वह भी उस धर्माचार्य की शरण में जाता है, जहां उसे उसकी सारी समस्याओं से छुटकारा दिलाने का आश्वासन दिया जाता है. अभी तो चैनल ने सिर्फ हिंदू धर्म के भीतर की इस विकृति को उजागर किया है, लेकिन यह विकृति सभी धर्मों में आ गयी है. कई कारणों से धर्म के प्रति लोगों का रुझान भी बढ़ा है. धर्माचार्य इसे सकारात्मक दिशा दे सकते हैं, लेकिन वे इसका फायदा उठाने की ही कोशिश करते हैं. सभी धर्मों में इसके अपवाद भी हैं. बहुत से लोग ऐसे मिलेंगे, जो धर्म के पाखंड या अंधविश्वास के बजाय उसके आध्यात्मिक स्वरूप का प्रचार करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है. धर्म का विद्रूप स्वरूप निस्संदेह आज सभी धर्मों के लिए चिंता की बात है. इसका विस्तार पूरे देश में है और दुनिया भर में फैला हुआ है. इसे रोकने की जिम्मेदारी हर जागरूक नागरिक की है और पाखंड रहित धर्म का प्रचार करने वालों को भी इसे रोकने के प्रयास करने चाहिए.
भला यह लोगों को मूर्ख बनाना नहीं तो और क्या है?
Sunday, May 13, 2007
सोहराबु्द्दीन की हत्या : कुछ नये आयाम
शर्मनाक स्वीकारोक्ति से उठे सवाल
विश्वनाथ सचदेव
सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में दिया गया गुजरात सरकार का यह बयान कि ये दोनों एनकाउंटर में नहीं मारे गये थे, बल्कि पुलिस ने सोच-समझ क र उनकी हत्या की थी, किसी सरकार द्वारा की गयी एक महत्वपूर्ण और शर्मनाक स्वीकारोक्ति है. यह बात भी कम महत्वपूर्ण और शर्मनाक नहीं है कि इस स्वीकारोक्ति से देश का आम आदमी चौंका नहीं है. जाहिर है कि इस तरह के एनकाउंटर आम बात हो चुके हैं और व्यवस्था और समाज, दोनों, यह मान कर चल रहे हैं कि `खास तरह' के अपराधियों से निबटने का यही एक कारगर तरीका है. गुजरात में इस तरह कि सी `खतरनाक अपराधी' को पहली बार खत्म नहीं कि या गया है. 2003 से लेकर 2006 के बीच नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कम से कम 27 `एनकाउंटर' हो चुके हैं. यह कहना तो कठिन है कि इनमें से कि तने सचमुच एनकाउंटर थे और कितने फर्जी, लेकिन यह इस बात का सबूत तो हैं ही कि कथित अपराधियों के खात्मे का यह तरीका प्रशासन को रास आता है. गुजरात के पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में तो पुलिस विभाग में एनकाउंटर विशेषज्ञ हैं. किस विशेषज्ञ ने कितने `अपराधियों' को खत्म कि या, इसका रिकार्ड रखा जाता है. इन शूरवीरों को तमगे और पदोन्नतियां मिलती हैं. यह बात और है कि इनमें से कई के खिलाफ अवैध संपत्ति, अवैध कारनामों की जांच हो रही हैं, बावजूद इसके आमतौर पर देखा यही गया है कि इन बहादुरों को हीरो ही बनाया जाता है. गुजरात में भी एंटी टेररिज्म स्क्वाड के मुखिया डीजी बंजारा की मोदी सरकार कई बार पीठ थपथपा चुकी है. इन्हीं के निर्देशन में सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी की हत्या की योजना क्रियान्वित हुई थी. तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी और अब गुजरात सरकार द्वारा गिरफ्तारी को अंजाम देनेवाले अफसर के पर कुतरने की कार्रवाई इस बात का प्रमाण है कि पुलिस यह काम सरकारी समर्थन (या शह?) के बिना नहीं करती. बात सिर्फ पुलिस तक ही सीमित नहीं हैं, गुजरात या महाराष्ट्र तक भी नहीं. हम देख चुके हैं कि कश्मीर और असम में कैसे सेना आतंकवादी बता कर निर्दोषों का एनकाउंटर कर चुकी है. अक्सर इस अवैध और अमानुषिक कार्रवाई के शिकार बेगुनाह होते हैं. गुजरात का यह मामला नवीनतम उदाहरण है. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में भाजपा नेता वीके मल्होत्रा कह रहे हैं कि सोहराबुद्दीन जैसे व्यक्ति को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए, वह भयादोहन जैसी गतिविधियों में लिप्त था, लेकिन इस सच क कै से नकारा जाये कि सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी न आतंकवादी थे, न लश्क र-ए-तोएबा के लिए काम करते थे और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री को मारने की साजिश कर रहे थे? वैसे भी पुलिस का काम अपराधियों को पक ड़ना, उन्हें सजा दिलाना है, बिना किसी सुनवाई के सजा देना नहीं. कम से कम कानून के शासन में ऐसा नहीं होता. तानाशाही में हो सकता है ऐसा. सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी बस द्वारा हैदराबाद से सांगली जा रहे थे। नवंबर में इस यात्रा के दौरान उन्हें बंदी बनाया गया और गुजरात ले जाकर पहले पति और फिर पत्नी को मार डाला गया। फिर घटना के एक चश्मदीद गवाह को भी समाप्त कर दिया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की उपस्थिति में. बाकी मामलों की तरह यह मामला भी गुमनामी में पड़ा रहता, यदि सोहराबुद्दीन का भाई न्यायालय का दरवाजा न खटखटाता और लगातार खटखटाता न रहता. अब जबकि खुद गुजरात सरकार ने यह स्वीकारा है कि न तो उसके पास सोहराबुद्दीन के आतंकवादी होने के कोई प्रमाण हैं और न ही उसकी मृत्यु एनकांउटर में हुई थी, यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस तरह के नकली एनकाउंटरों से बचा कैसे जाये. गुजरात का यह प्रकरण न्यायालय के विचाराधीन है. आशा की जानी चाहिए कि जल्दी ही सही गलत सामने आ जायेगा और कानून अपने हाथ में लेनेवाले पुलिस अधिकारियों और सत्ता का गलत उपयोग करनेवाली व्यवस्था को उचित सजा और प्रताड़ना मिलेगी. लेकिन एनक उंटर-संस्कृति के पीछे जो कारण बताये जाते हैं, उनमें से एक यह भी है कि हमारी कानूनी प्रक्रिया ऐसी है जिसमें अक्सर अपराधी बच जाते हैं, इसलिए पुलिस को ऐसा करना पड़ता है. यदि ऐसा हो, तो इसके लिए कानूनी प्रक्रिया में अपेक्षित परिवर्तन होना चाहिए. अपराध खत्म करने के नाम पर किसी निरपराध को मारना अजनतांत्रिक ही नहीं, अमानवीय भी है. कानून के शासन और संविधान की मर्यादाओं का तकाजा है कि यह अपनी तरह का अंतिम उदाहरण हो. न्यायालय इस संदर्भ में अपना काम क र रहा है. गुजरात के इस तरह के 29 एनकांउटरों के बारे में विचार करना है उसे. लेकिन सत्ता के मद में अंधी व्यवस्था को सावधान करने का काम समाज को ही करना है.
क्या है मामला?
सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स को पुलिस अधिकारियों ने लश्कर का आतंकवादी बता फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा. उजैन के पास स्थित गांव झिरनया निवासी सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच है. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है.
कटघरे में कौन : गुजरात के डीआइजी डीजी बंजारा, एसपी राजकुमार पांड्यन और राजस्थान में अलवर के एसपी एमएन दिनेश. तीनों गिरफ्तार. पुलिस के कुछ और अधिकारियों के नाम सामने आने की संभावना.
फूलप्रूफ प्लानिंग
22 नवंबर 2005 : बस से हैदराबाद से सांगली जा रहे पति-पत्नी सोहराबुद्दीन शेख व कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति को पुलिस ने बिना अरेस्ट वारेंट के उतार लिया. कौसर बी को उतारने के लिए कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं.
24 नवंबर 2005 : गोपनीय पूछताछ के नाम पर एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इन्हें व्यापारी गिरीश पटेल के गांधीनगर के पास जमियतपुरा स्थित फार्म हाऊस में ले गये.
26 नवंबर 2005 : 25-26 की रात पुलिस सोहराबुद्दीन को अहमदाबाद के पास ले गयी. तीनों अधिकारी पहले से मौजूद. एक कांस्टेबल को एटीएस में रखी हीरो होंडा बाइक लाने को कहा गया. तड़के करीब 4 बजे राजस्थान पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर ने थोड़ी दूर तक बाइक चलायी और चलती बाइक को सड़क पर रपट कर कूद गया. सोहराबुद्दीन को भी कार से निकालकर बाइक के पास फेंका गया. 4 इंस्पेक्टरों ने उसे गोलियों से भून डाला.
28 नवंबर 2005 : कौसर बी की हत्या कर शव को जला दिया गया. सीआइडी के मुताबिक हत्या बंजारा के गांव के पास की गयी.
वर्दीवाला कातिल
फिल्मों में जिस तरह फर्जी मुठभेड़ों को फिल्माया जाता रहा है, वह दिखाता है कि वे फिल्मकारों की कल्पना से ज्यादा समाज की हकीकत हैं. हाल के दिनों में यह चेहरा खुलकर जनता के सामने भी आया है. एनकाउंटर समाज में अपराधियों से मुक्त करने का पुलिस का एक धारदार फार्मूला है, जहां कानून, जांच, सबूत औरा अदालत के लिए कोई जगह नहीं. सिर्फ अपराधी-आतंकवादी ही नहीं, सामान्य लोग भी अब एनकाउंटर का शिकार बन रहे हैं. फर्जी मुठभेड़ को लेकर देशभर में एक जोरदार बहस चल पड़ी है. आखिर क्या वजह है कि पुलिस कई बार न्यायिक व्यवस्था को लांघकर फर्जी मुठभेड़ का तरीका अपनाती है. ज्यादा दिन नहीं हुए हैं मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक के कारनामे की पोल खुले. सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स का पुलिस अधिकारियों द्वारा लश्कर का आतंकवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा गया. जबकि सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच हैं. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है. इस मामले में गुजरात के डिआइजी डीजी बंजारा, एसपी राजकुमार पांड्यन और राजस्थान के अलवर के एसपी एमएन दिनेश को कटघरे में ला खड़ा किया. क्या पुलिस को इस तरह के एनकाउंटर के अधिकार होने चाहिए? इस पर पूरे देश में बहस छिड़ गयी है. पचास के दशक में डाकुओं के खिलाफ एनकाउंटर होते थे, फिर नक्सलियों के खिलाफ और फिर आतंकवादियों और माफियाओं के खिलाफ एंनकाउंटर को अंजाम दिया जाने लगा. यह सिलसिला आज भी जारी है. ऐसे एनकाउंटरों के बाद पुलिस के पास सीधा और सटीक सा जवाब होता है कि जब इस तरह के आपराधिक लोग पुलिस के सामने अपराध करने लगे या फिर पुलिस पर ही गोली बरसाने लगे, तो पुलिस को अपनी आत्म रक्षा और ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए एनकाउंटर ही एक मात्र रास्ता रह जाता है. पुलिस का यह कहना गलत भी नहीं है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस के एनकाउंटर में बेगुनाह लोगों की मौत नहीं होती? अगर होती है तो उसके रोकने के लिए क्या उचित उपाय है? कई जगह तो यह बात भी सुनने मे आता है कि पुलिस वाले ने एक अपराधी से सुपारी लेकर दूसरे अपराधी का एनकाउंटर कर दिया, आपसी रंजिश में एनकाउंटर कोई नयी बात नहीं है. सोहराबुद्दीन का केस न्यायालय में है और उस पर फैसला कोर्ट करेगा, लेकिन देश की जनता के सामने एक सवाल यह है कि क्या पुलिस के पास इस तरह के एनकाउंटर का अधिकार होने चाहिए? क्या कानून के शासन में पुलिस या किसी एजेसी को बिना कानूनी कार्रवाई के सजा देने का अधिकार मिलना चाहिए? फर्जी मुठभेड़ पर देशभर में बहस तब छिड़ी जब सीआडी ने सोहराबुद्दीन केस की जांच में बताया कि यह फर्जी मुठभेड़ था. दरअसल बात यह थी कि 2005 में सोहराबुद्दीन अपनी पत्नी और दोस्त के साथ हैदराबाद से संगली बस से जा रहे थे. रास्ते में ही पुलिसवालों ने तीनों को रास्ते मे ही उतार लिया. सोहराबुद्दीन की हत्या उसी दिन कर दिया गया और बताया गया कि यह लश्कर का आतंकवादी था, जो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई बड़े नेताओं की हत्या के फिराक में था. उनकी पत्नी की हत्या दो दिन के बाद कर दी गयी और दोस्त की हत्या लगभग महीने भर बाद. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इस केस की सच्चाई सामने आ रही है. ऐसे में दिल्ली और मुंबई सहित पूरे देश में हो रहे एनकाउंटर शक के दायरे में आ गये हैं. प्रकाश में आये ज्यादातर पुलिसवालों की संपत्ति लाखों में नहीं करोड़ों में देखी गयी है. एक लेखक के रूप में कैरियर की शुरुआत करने के बाद पुलिस फोर्स ज्वाइन करनेवाले दया नायक की संपत्ति का अनुमान एंटी करप्शन ब्यरो ने लगभग 9 करोड़ आंकी है. एक सब इंस्पेक्टर जिसकी सैलरी 12 हजार रुपये है, को दुबई के एक होटल का पार्टनर बना पाया गया है और कर्नाटक में 1 करोड़ की लागत से स्कूल भी है, जिसका उदघाटन सुपर स्टार अमिताभ बच्च्न ने किया था. ऐसा नहीं है कि ऐसे केस सिर्फ मुंबई में ही हुए है. देश के अन्य शहरों में भी इस तरह की घटनाएं आम है. सोहराबुद्दीन मामले से प्रकाश में आये डीआइजी डीजी बंजारा की संपत्ति तो लगभग 150 करोड़ बतायी जा रही है, जिसमें होटल, बंगला और भूमि है. फर्जी मुठभेड़ से ऐसे पुलिसवालों की कमायी का अंदाजा लगाना इतना आसान भी नहीं है. जमीन-जायदाद के मामले को सुलझान में ही कमाई लाखों में हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक फर्जी मुठभेड़ में एक पुलिसवाले की सलाना कमाई 2 से 5 करोड़ रुपये तक हो जाती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इतना सबकुछ पता है तो ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है, जवाब भी सीधा है कि ऐसे लोगों के उपर राजनेताआें का हाथ होता है, जो ऐसे पुलिसवावलों का उपयोग अपने सत्ता संचालन में करते हैं. एनकाउंटर पहले भी होता था. पहला फर्जी एनकाउंटर 1940 में तेलंगाना मूवमेंट के समय हुआ था, जिसमें बहुत से लोगों को मौत के घाट उतारा गया था. इमरजेंसी के समय ऐसे एनकाउंटर की संख्या में वृद्धि देखने को मिली. एनएचआरसी की एक रिपोर्ट के अनुसार फर्जी मुठभेड़ के मामले में उत्तरप्रदेश सबसे प्रभावित प्रांत है, जहां 2003-04 में 68 फर्जी एनकाउंटर हुये और 2004-05 में 54. जबकि दूसरे स्थान पर आंध्रप्रदेश का नंबर आता है. लेकिन इन आंकड़ों को भी पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता, क्योंकि सोहराबुद्दीन जैसे कितने ही मामले होंगे, जो प्रकाश में नहीं आये होंगे. इसलिए अंदाजा लगाना मुश्किल है. ज्यादातर फर्जी मुठभेड़ के मामले कोर्ट तक पहुंच ही नहीं पाते हैं. सवाल यह उठता है कि ऐसे में पुलिस फोर्स को अपराध से लड़ने के लिए किस प्रकार का और कैसे अधिकार दिये जाने चाहिए और उसका उपयोग किस प्रकार से करें कि इसका गलत उपयोग न हो सके. इसके लिए पुलिस प्रशासन को एक दिशा निर्देश की जरूरत है, जिसमें हर एक एनकाउंटर के बाद उसकी पुलिस विभाग द्वारा ही जांच की जानी चाहिए. पुलिस को राज्य ह्यूमन राइट कमीशन को एनकाउंटर के बारे में बताना चाहिए, जिससे ह्यूमन राइट कमीशन उसकी जांच कर सके.
जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं बनाया जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगा.
प्रशांत भूषण
वरिष्ठ अधिवक्ता
आये दिन पुलिस द्वारा किये गये फर्जी मुठभेड़ की खबर सुनने को मिलती है, लेकिन अजीब विडंबना है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसवालों को दंड कम ही मिल पाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे सिस्टम में व्याप्त खामियां हैं. फर्जी मुठभेड़ की खबर जब सामने आती है, तब कोई जांच कमेटी या साधारण जांच गठित कर दी जाती है. लेकिन इसका निष्कर्ष सही दिशा में नहीं निकल पाता. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है जांच में पुलिसवालों का शामिल होना. निश्चित रूप से एकसाथ काम कर रहे पुलिसवालों को आपस में सांठ-गांठ बनी ही रहती है. यह बात स्पष्ट रूप से जांच में सामने आता है. गुजरात, कश्मीर, उत्तर पूर्वी राज्यों आदि में फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं अक्सर सुनने में आती है. ऐसे मामलों में सभी की सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिए. राजनीतिक पार्टियां भी अपने हित के लिए पुलिस का इस्तेमाल करती है और फर्जी एनकाउंटर करवाया जाता है. एक समस्या यह भी है कि आज भारतीय समाज जागरूक कम ही हो पायी है. अगर पुलिस कहती है कि कोई आतंकवादी मारा गया है, तो हम भी यह मान लेते हैं कि वाकई में आतंकवादी ही मारे गये हैं. हम सवाल पूछना नहीं सीख पाये हैं, जबकि कानून में ऐसे प्रावधान दिये गये हैं. फर्जी एनकाउंटर के मामले में हमारे देश का कानून बहुत हद तक प्रभावी नहीं है, क्योंकि कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सीपीसी) के सेक्शन 197 के अनुसार पब्लिक सर्वेंट को गैर-जवाबदेही का अधिकार देता है. इस सेक्शन को हटाने की मांग कई साल से चल रही है. इस कानून के अंतर्गत पब्लिक सर्वेंट के ऊपर केस चलाने के लिए सरकार से आज्ञा लेनी पड़ती है. जो कम ही मिल पाती है या इसमें काफी विलंब होता है. सबसे बड़ी बात है फर्जी मुठभेड़ों के अधिकांश मामलों में घटना का चश्मदीद ही नहीं मिलता. सिर्फ पुलिस द्वारा बतायी गयी बात और परिस्थितिजन्य साक्ष्य ही सबूत के तौर पर पेश किया जाता है. यही कारण है कि किसी फर्जी मुठभेड़ को गलत साबित करना मुश्किल होता है. मौजूदा कानून में सुधार की बात की जाये तो हर अप्राकृतिक मौत के मामले में एफआइआर दर्ज होनी चाहिए और साथ ही ऐसे हर मामलों में जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा अवश्य हो. जांच शुरू होते ही आरोपी पुलिसवाले को उसके सेवा से निलंबित रखा जाये. अगर किसी को लगता है कि उसके परिवार का कोई सदस्य फर्जी मुठभेड़ का शिकार हुआ है, तो सबसे पहले उसे कोर्ट में लापता या अपहरण का केस दर्ज करवाना चाहिए, वहीं अगर कोई व्यक्ति पुलिस कस्टडी में है, तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करवानी चाहिए. इतना ही नहीं पुलिस के खिलाफ निजी तौर पर भी शिकायत दर्ज करवायी जा सकती है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी परेशानी यही है कि जांच का जिम्मा पुलिसवालों को ही थमाया जाता है और पुलिसवाले पीड़ित पर मामला वापस लेकर दबाव डालती है. जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं सुधारा जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगी.
वेद मारवाह
पूर्व डीजी, एनएसजी
पुलिस अधिकारियों द्वारा फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने की मुख्य वजह है कि कुछ पुलिस अधिकारी सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचते हैं और किसी भी तरह अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं. सिर्फ वे ही इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं. राजनेताओं और जनता में यह भरोसा बन रहा है कि पुलिस को ज्यादा से ज्यादा ताकत दें. इससे अपराधियों से बेहतर ढंग से निपट सकेगी और अपराधों को कम किया जा सकेगा. ऐसी मान्यता इसलिए भी बन रही है, क्योंकि सभी यह देख रहे हैं कि मामले सालों तक अदालतों में पड़े रहते हैं और अपराधी बाहर घूमते रहते हैं. आतंकवाद के बमुश्किल तीन-चार फीसदी मामलों में सजा हो पाती है. ऐसे में कई पुलिस अधिकारी कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं. अगर हम संगठित अपराधों की बात करें, तो उनके पीछे हमेशा लॉबी का हाथ होता है. ज्यूडिसियरी से कारावास तक सभी कुछ नियोजित होता है. मसलन कौन जांच करेगा, कहां सुनवाई होगी आदि. यही वजह है कि नेताओं के मामलों की सुनवाई सालों-साल नहीं होती. दरअसल, पुलिस व ज्यूडिशयल सिस्टम दोनों में भारी कमियां हैं. पुलिस महकमे में सुधार के न जाने कितने कमीशन बने, कमिटियां बनीं, सुप्रीम कोर्ट ने सुधार के आदेश दिये, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. जहां तक सोहराबुद्दीन के फर्जी एनकाउंटर का मामला है, तो उस बारे में मुझे पूरी जानकारी नहीं है, लेकिन मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उनके आधार पर मैं इसे घृणित काम करार देता हूं. मेरा मानना है कि इस घटना की जितनी भी निंदा की जाये कम है. यह जनता के भरोसे के साथ सरासर खिलवाड़ है. खास बात यह है कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है, बल्कि इससे पहले भी फर्जी मुठभेड़ों की खबरें सामने आती रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार, जम्मू-कश्मीर और नक्सल प्रभावित इलाकों में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं. एक दौर था, जब पंजाब में भी सीनियर अधिकारियों के नाम फर्जी मुठभेड़ों में आते रहे. हैरत होती है कि उन्हीं अधिकारियों को हीरो बना दिया गया. अब इसके लिए दोष किसे दें. कुछ हद तक इसमें मीडिया की भूमिका भी सही नहीं कही जा सकती. उसने इन लोगों को हीरो बनाया. ये लोग कई बार तर्क देते हैं कि समाज को अपराध मुक्त करने की कोशिशों में एक-आध निर्दोष की जान जा सकती है. लेकिन यह तर्क सरासर गलत है. अगर ऐसा होगा तो सारा सिस्टम ही बर्बाद हो जायेगा. जंगलराज आ जायेगा. जनता में असुरक्षा की भावना बढ़ेगी. देश में महज पावरवाले लोगों का राज चलेगा. अपराधी और निर्दोष का फर्क खत्म हो जायेगा. यानी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही तबाह हो जायेगी. इस समय पुलिस व न्याय व्यवस्था की जो हालत है, उसके लिए हमारा सरकारी तंत्र भी जिम्मेदार है. एक तो पॉलिटिक्स पूरी तरह बाजारू हो गयी है. ऐसे में अधिकारियों को भी मौका मिल जाता है, अपनी मनमानी करने का. इसके अलावा, ज्यादातर सरकारें कम वक्त ही सत्ता में रह पाती हैं. इन अस्थिर सरकारों की लांग टर्म सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं होती. वे ऐसे मैजिक की तलाश में होती हैं, जो तुरंत बदलाव ले आये. हालात तभी बदल सकते हैं, जब इस तरह के मसलों पर राजनीति से ऊपर उठकर सभी दल गंभीर होकर समाधान की कोशिश करें. इसके अलावा दोषियों को कठोर से कठोर दंड दिया जाना जरूरी है, ताकि दूसरे लोगों को एक सबक मिल सके. ज्यूडिशयल सिस्टम को मजबूत किया जाना चाहिए. इस सिस्टम की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए. कानून अगर ग्राउंड रियलिटी को ध्यान में रखकर न बनाये जायें, तो वे कभी प्रभावी नहीं हो सकते. आतंकवाद की रोकथाम के लिए अलग से कानून होना चाहिए. पहले था भी, लेकिन उसे हटा दिया गया. भारत जैसे आतंकवाद से ग्रसित मुल्क में ऐसे कानून के बिना काम नहीं चल सकता.
विश्वनाथ सचदेव
सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में दिया गया गुजरात सरकार का यह बयान कि ये दोनों एनकाउंटर में नहीं मारे गये थे, बल्कि पुलिस ने सोच-समझ क र उनकी हत्या की थी, किसी सरकार द्वारा की गयी एक महत्वपूर्ण और शर्मनाक स्वीकारोक्ति है. यह बात भी कम महत्वपूर्ण और शर्मनाक नहीं है कि इस स्वीकारोक्ति से देश का आम आदमी चौंका नहीं है. जाहिर है कि इस तरह के एनकाउंटर आम बात हो चुके हैं और व्यवस्था और समाज, दोनों, यह मान कर चल रहे हैं कि `खास तरह' के अपराधियों से निबटने का यही एक कारगर तरीका है. गुजरात में इस तरह कि सी `खतरनाक अपराधी' को पहली बार खत्म नहीं कि या गया है. 2003 से लेकर 2006 के बीच नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कम से कम 27 `एनकाउंटर' हो चुके हैं. यह कहना तो कठिन है कि इनमें से कि तने सचमुच एनकाउंटर थे और कितने फर्जी, लेकिन यह इस बात का सबूत तो हैं ही कि कथित अपराधियों के खात्मे का यह तरीका प्रशासन को रास आता है. गुजरात के पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में तो पुलिस विभाग में एनकाउंटर विशेषज्ञ हैं. किस विशेषज्ञ ने कितने `अपराधियों' को खत्म कि या, इसका रिकार्ड रखा जाता है. इन शूरवीरों को तमगे और पदोन्नतियां मिलती हैं. यह बात और है कि इनमें से कई के खिलाफ अवैध संपत्ति, अवैध कारनामों की जांच हो रही हैं, बावजूद इसके आमतौर पर देखा यही गया है कि इन बहादुरों को हीरो ही बनाया जाता है. गुजरात में भी एंटी टेररिज्म स्क्वाड के मुखिया डीजी बंजारा की मोदी सरकार कई बार पीठ थपथपा चुकी है. इन्हीं के निर्देशन में सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी की हत्या की योजना क्रियान्वित हुई थी. तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी और अब गुजरात सरकार द्वारा गिरफ्तारी को अंजाम देनेवाले अफसर के पर कुतरने की कार्रवाई इस बात का प्रमाण है कि पुलिस यह काम सरकारी समर्थन (या शह?) के बिना नहीं करती. बात सिर्फ पुलिस तक ही सीमित नहीं हैं, गुजरात या महाराष्ट्र तक भी नहीं. हम देख चुके हैं कि कश्मीर और असम में कैसे सेना आतंकवादी बता कर निर्दोषों का एनकाउंटर कर चुकी है. अक्सर इस अवैध और अमानुषिक कार्रवाई के शिकार बेगुनाह होते हैं. गुजरात का यह मामला नवीनतम उदाहरण है. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में भाजपा नेता वीके मल्होत्रा कह रहे हैं कि सोहराबुद्दीन जैसे व्यक्ति को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए, वह भयादोहन जैसी गतिविधियों में लिप्त था, लेकिन इस सच क कै से नकारा जाये कि सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी न आतंकवादी थे, न लश्क र-ए-तोएबा के लिए काम करते थे और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री को मारने की साजिश कर रहे थे? वैसे भी पुलिस का काम अपराधियों को पक ड़ना, उन्हें सजा दिलाना है, बिना किसी सुनवाई के सजा देना नहीं. कम से कम कानून के शासन में ऐसा नहीं होता. तानाशाही में हो सकता है ऐसा. सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी बस द्वारा हैदराबाद से सांगली जा रहे थे। नवंबर में इस यात्रा के दौरान उन्हें बंदी बनाया गया और गुजरात ले जाकर पहले पति और फिर पत्नी को मार डाला गया। फिर घटना के एक चश्मदीद गवाह को भी समाप्त कर दिया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की उपस्थिति में. बाकी मामलों की तरह यह मामला भी गुमनामी में पड़ा रहता, यदि सोहराबुद्दीन का भाई न्यायालय का दरवाजा न खटखटाता और लगातार खटखटाता न रहता. अब जबकि खुद गुजरात सरकार ने यह स्वीकारा है कि न तो उसके पास सोहराबुद्दीन के आतंकवादी होने के कोई प्रमाण हैं और न ही उसकी मृत्यु एनकांउटर में हुई थी, यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस तरह के नकली एनकाउंटरों से बचा कैसे जाये. गुजरात का यह प्रकरण न्यायालय के विचाराधीन है. आशा की जानी चाहिए कि जल्दी ही सही गलत सामने आ जायेगा और कानून अपने हाथ में लेनेवाले पुलिस अधिकारियों और सत्ता का गलत उपयोग करनेवाली व्यवस्था को उचित सजा और प्रताड़ना मिलेगी. लेकिन एनक उंटर-संस्कृति के पीछे जो कारण बताये जाते हैं, उनमें से एक यह भी है कि हमारी कानूनी प्रक्रिया ऐसी है जिसमें अक्सर अपराधी बच जाते हैं, इसलिए पुलिस को ऐसा करना पड़ता है. यदि ऐसा हो, तो इसके लिए कानूनी प्रक्रिया में अपेक्षित परिवर्तन होना चाहिए. अपराध खत्म करने के नाम पर किसी निरपराध को मारना अजनतांत्रिक ही नहीं, अमानवीय भी है. कानून के शासन और संविधान की मर्यादाओं का तकाजा है कि यह अपनी तरह का अंतिम उदाहरण हो. न्यायालय इस संदर्भ में अपना काम क र रहा है. गुजरात के इस तरह के 29 एनकांउटरों के बारे में विचार करना है उसे. लेकिन सत्ता के मद में अंधी व्यवस्था को सावधान करने का काम समाज को ही करना है.
क्या है मामला?
सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स को पुलिस अधिकारियों ने लश्कर का आतंकवादी बता फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा. उजैन के पास स्थित गांव झिरनया निवासी सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच है. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है.
कटघरे में कौन : गुजरात के डीआइजी डीजी बंजारा, एसपी राजकुमार पांड्यन और राजस्थान में अलवर के एसपी एमएन दिनेश. तीनों गिरफ्तार. पुलिस के कुछ और अधिकारियों के नाम सामने आने की संभावना.
फूलप्रूफ प्लानिंग
22 नवंबर 2005 : बस से हैदराबाद से सांगली जा रहे पति-पत्नी सोहराबुद्दीन शेख व कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति को पुलिस ने बिना अरेस्ट वारेंट के उतार लिया. कौसर बी को उतारने के लिए कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं.
24 नवंबर 2005 : गोपनीय पूछताछ के नाम पर एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इन्हें व्यापारी गिरीश पटेल के गांधीनगर के पास जमियतपुरा स्थित फार्म हाऊस में ले गये.
26 नवंबर 2005 : 25-26 की रात पुलिस सोहराबुद्दीन को अहमदाबाद के पास ले गयी. तीनों अधिकारी पहले से मौजूद. एक कांस्टेबल को एटीएस में रखी हीरो होंडा बाइक लाने को कहा गया. तड़के करीब 4 बजे राजस्थान पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर ने थोड़ी दूर तक बाइक चलायी और चलती बाइक को सड़क पर रपट कर कूद गया. सोहराबुद्दीन को भी कार से निकालकर बाइक के पास फेंका गया. 4 इंस्पेक्टरों ने उसे गोलियों से भून डाला.
28 नवंबर 2005 : कौसर बी की हत्या कर शव को जला दिया गया. सीआइडी के मुताबिक हत्या बंजारा के गांव के पास की गयी.
वर्दीवाला कातिल
फिल्मों में जिस तरह फर्जी मुठभेड़ों को फिल्माया जाता रहा है, वह दिखाता है कि वे फिल्मकारों की कल्पना से ज्यादा समाज की हकीकत हैं. हाल के दिनों में यह चेहरा खुलकर जनता के सामने भी आया है. एनकाउंटर समाज में अपराधियों से मुक्त करने का पुलिस का एक धारदार फार्मूला है, जहां कानून, जांच, सबूत औरा अदालत के लिए कोई जगह नहीं. सिर्फ अपराधी-आतंकवादी ही नहीं, सामान्य लोग भी अब एनकाउंटर का शिकार बन रहे हैं. फर्जी मुठभेड़ को लेकर देशभर में एक जोरदार बहस चल पड़ी है. आखिर क्या वजह है कि पुलिस कई बार न्यायिक व्यवस्था को लांघकर फर्जी मुठभेड़ का तरीका अपनाती है. ज्यादा दिन नहीं हुए हैं मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक के कारनामे की पोल खुले. सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स का पुलिस अधिकारियों द्वारा लश्कर का आतंकवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा गया. जबकि सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच हैं. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है. इस मामले में गुजरात के डिआइजी डीजी बंजारा, एसपी राजकुमार पांड्यन और राजस्थान के अलवर के एसपी एमएन दिनेश को कटघरे में ला खड़ा किया. क्या पुलिस को इस तरह के एनकाउंटर के अधिकार होने चाहिए? इस पर पूरे देश में बहस छिड़ गयी है. पचास के दशक में डाकुओं के खिलाफ एनकाउंटर होते थे, फिर नक्सलियों के खिलाफ और फिर आतंकवादियों और माफियाओं के खिलाफ एंनकाउंटर को अंजाम दिया जाने लगा. यह सिलसिला आज भी जारी है. ऐसे एनकाउंटरों के बाद पुलिस के पास सीधा और सटीक सा जवाब होता है कि जब इस तरह के आपराधिक लोग पुलिस के सामने अपराध करने लगे या फिर पुलिस पर ही गोली बरसाने लगे, तो पुलिस को अपनी आत्म रक्षा और ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए एनकाउंटर ही एक मात्र रास्ता रह जाता है. पुलिस का यह कहना गलत भी नहीं है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस के एनकाउंटर में बेगुनाह लोगों की मौत नहीं होती? अगर होती है तो उसके रोकने के लिए क्या उचित उपाय है? कई जगह तो यह बात भी सुनने मे आता है कि पुलिस वाले ने एक अपराधी से सुपारी लेकर दूसरे अपराधी का एनकाउंटर कर दिया, आपसी रंजिश में एनकाउंटर कोई नयी बात नहीं है. सोहराबुद्दीन का केस न्यायालय में है और उस पर फैसला कोर्ट करेगा, लेकिन देश की जनता के सामने एक सवाल यह है कि क्या पुलिस के पास इस तरह के एनकाउंटर का अधिकार होने चाहिए? क्या कानून के शासन में पुलिस या किसी एजेसी को बिना कानूनी कार्रवाई के सजा देने का अधिकार मिलना चाहिए? फर्जी मुठभेड़ पर देशभर में बहस तब छिड़ी जब सीआडी ने सोहराबुद्दीन केस की जांच में बताया कि यह फर्जी मुठभेड़ था. दरअसल बात यह थी कि 2005 में सोहराबुद्दीन अपनी पत्नी और दोस्त के साथ हैदराबाद से संगली बस से जा रहे थे. रास्ते में ही पुलिसवालों ने तीनों को रास्ते मे ही उतार लिया. सोहराबुद्दीन की हत्या उसी दिन कर दिया गया और बताया गया कि यह लश्कर का आतंकवादी था, जो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई बड़े नेताओं की हत्या के फिराक में था. उनकी पत्नी की हत्या दो दिन के बाद कर दी गयी और दोस्त की हत्या लगभग महीने भर बाद. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इस केस की सच्चाई सामने आ रही है. ऐसे में दिल्ली और मुंबई सहित पूरे देश में हो रहे एनकाउंटर शक के दायरे में आ गये हैं. प्रकाश में आये ज्यादातर पुलिसवालों की संपत्ति लाखों में नहीं करोड़ों में देखी गयी है. एक लेखक के रूप में कैरियर की शुरुआत करने के बाद पुलिस फोर्स ज्वाइन करनेवाले दया नायक की संपत्ति का अनुमान एंटी करप्शन ब्यरो ने लगभग 9 करोड़ आंकी है. एक सब इंस्पेक्टर जिसकी सैलरी 12 हजार रुपये है, को दुबई के एक होटल का पार्टनर बना पाया गया है और कर्नाटक में 1 करोड़ की लागत से स्कूल भी है, जिसका उदघाटन सुपर स्टार अमिताभ बच्च्न ने किया था. ऐसा नहीं है कि ऐसे केस सिर्फ मुंबई में ही हुए है. देश के अन्य शहरों में भी इस तरह की घटनाएं आम है. सोहराबुद्दीन मामले से प्रकाश में आये डीआइजी डीजी बंजारा की संपत्ति तो लगभग 150 करोड़ बतायी जा रही है, जिसमें होटल, बंगला और भूमि है. फर्जी मुठभेड़ से ऐसे पुलिसवालों की कमायी का अंदाजा लगाना इतना आसान भी नहीं है. जमीन-जायदाद के मामले को सुलझान में ही कमाई लाखों में हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक फर्जी मुठभेड़ में एक पुलिसवाले की सलाना कमाई 2 से 5 करोड़ रुपये तक हो जाती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इतना सबकुछ पता है तो ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है, जवाब भी सीधा है कि ऐसे लोगों के उपर राजनेताआें का हाथ होता है, जो ऐसे पुलिसवावलों का उपयोग अपने सत्ता संचालन में करते हैं. एनकाउंटर पहले भी होता था. पहला फर्जी एनकाउंटर 1940 में तेलंगाना मूवमेंट के समय हुआ था, जिसमें बहुत से लोगों को मौत के घाट उतारा गया था. इमरजेंसी के समय ऐसे एनकाउंटर की संख्या में वृद्धि देखने को मिली. एनएचआरसी की एक रिपोर्ट के अनुसार फर्जी मुठभेड़ के मामले में उत्तरप्रदेश सबसे प्रभावित प्रांत है, जहां 2003-04 में 68 फर्जी एनकाउंटर हुये और 2004-05 में 54. जबकि दूसरे स्थान पर आंध्रप्रदेश का नंबर आता है. लेकिन इन आंकड़ों को भी पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता, क्योंकि सोहराबुद्दीन जैसे कितने ही मामले होंगे, जो प्रकाश में नहीं आये होंगे. इसलिए अंदाजा लगाना मुश्किल है. ज्यादातर फर्जी मुठभेड़ के मामले कोर्ट तक पहुंच ही नहीं पाते हैं. सवाल यह उठता है कि ऐसे में पुलिस फोर्स को अपराध से लड़ने के लिए किस प्रकार का और कैसे अधिकार दिये जाने चाहिए और उसका उपयोग किस प्रकार से करें कि इसका गलत उपयोग न हो सके. इसके लिए पुलिस प्रशासन को एक दिशा निर्देश की जरूरत है, जिसमें हर एक एनकाउंटर के बाद उसकी पुलिस विभाग द्वारा ही जांच की जानी चाहिए. पुलिस को राज्य ह्यूमन राइट कमीशन को एनकाउंटर के बारे में बताना चाहिए, जिससे ह्यूमन राइट कमीशन उसकी जांच कर सके.
जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं बनाया जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगा.
प्रशांत भूषण
वरिष्ठ अधिवक्ता
आये दिन पुलिस द्वारा किये गये फर्जी मुठभेड़ की खबर सुनने को मिलती है, लेकिन अजीब विडंबना है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसवालों को दंड कम ही मिल पाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे सिस्टम में व्याप्त खामियां हैं. फर्जी मुठभेड़ की खबर जब सामने आती है, तब कोई जांच कमेटी या साधारण जांच गठित कर दी जाती है. लेकिन इसका निष्कर्ष सही दिशा में नहीं निकल पाता. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है जांच में पुलिसवालों का शामिल होना. निश्चित रूप से एकसाथ काम कर रहे पुलिसवालों को आपस में सांठ-गांठ बनी ही रहती है. यह बात स्पष्ट रूप से जांच में सामने आता है. गुजरात, कश्मीर, उत्तर पूर्वी राज्यों आदि में फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं अक्सर सुनने में आती है. ऐसे मामलों में सभी की सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिए. राजनीतिक पार्टियां भी अपने हित के लिए पुलिस का इस्तेमाल करती है और फर्जी एनकाउंटर करवाया जाता है. एक समस्या यह भी है कि आज भारतीय समाज जागरूक कम ही हो पायी है. अगर पुलिस कहती है कि कोई आतंकवादी मारा गया है, तो हम भी यह मान लेते हैं कि वाकई में आतंकवादी ही मारे गये हैं. हम सवाल पूछना नहीं सीख पाये हैं, जबकि कानून में ऐसे प्रावधान दिये गये हैं. फर्जी एनकाउंटर के मामले में हमारे देश का कानून बहुत हद तक प्रभावी नहीं है, क्योंकि कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सीपीसी) के सेक्शन 197 के अनुसार पब्लिक सर्वेंट को गैर-जवाबदेही का अधिकार देता है. इस सेक्शन को हटाने की मांग कई साल से चल रही है. इस कानून के अंतर्गत पब्लिक सर्वेंट के ऊपर केस चलाने के लिए सरकार से आज्ञा लेनी पड़ती है. जो कम ही मिल पाती है या इसमें काफी विलंब होता है. सबसे बड़ी बात है फर्जी मुठभेड़ों के अधिकांश मामलों में घटना का चश्मदीद ही नहीं मिलता. सिर्फ पुलिस द्वारा बतायी गयी बात और परिस्थितिजन्य साक्ष्य ही सबूत के तौर पर पेश किया जाता है. यही कारण है कि किसी फर्जी मुठभेड़ को गलत साबित करना मुश्किल होता है. मौजूदा कानून में सुधार की बात की जाये तो हर अप्राकृतिक मौत के मामले में एफआइआर दर्ज होनी चाहिए और साथ ही ऐसे हर मामलों में जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा अवश्य हो. जांच शुरू होते ही आरोपी पुलिसवाले को उसके सेवा से निलंबित रखा जाये. अगर किसी को लगता है कि उसके परिवार का कोई सदस्य फर्जी मुठभेड़ का शिकार हुआ है, तो सबसे पहले उसे कोर्ट में लापता या अपहरण का केस दर्ज करवाना चाहिए, वहीं अगर कोई व्यक्ति पुलिस कस्टडी में है, तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करवानी चाहिए. इतना ही नहीं पुलिस के खिलाफ निजी तौर पर भी शिकायत दर्ज करवायी जा सकती है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी परेशानी यही है कि जांच का जिम्मा पुलिसवालों को ही थमाया जाता है और पुलिसवाले पीड़ित पर मामला वापस लेकर दबाव डालती है. जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं सुधारा जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगी.
बातचीत : कमलेश कुमार
सिस्टम बने जवाबदेहवेद मारवाह
पूर्व डीजी, एनएसजी
पुलिस अधिकारियों द्वारा फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने की मुख्य वजह है कि कुछ पुलिस अधिकारी सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचते हैं और किसी भी तरह अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं. सिर्फ वे ही इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं. राजनेताओं और जनता में यह भरोसा बन रहा है कि पुलिस को ज्यादा से ज्यादा ताकत दें. इससे अपराधियों से बेहतर ढंग से निपट सकेगी और अपराधों को कम किया जा सकेगा. ऐसी मान्यता इसलिए भी बन रही है, क्योंकि सभी यह देख रहे हैं कि मामले सालों तक अदालतों में पड़े रहते हैं और अपराधी बाहर घूमते रहते हैं. आतंकवाद के बमुश्किल तीन-चार फीसदी मामलों में सजा हो पाती है. ऐसे में कई पुलिस अधिकारी कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं. अगर हम संगठित अपराधों की बात करें, तो उनके पीछे हमेशा लॉबी का हाथ होता है. ज्यूडिसियरी से कारावास तक सभी कुछ नियोजित होता है. मसलन कौन जांच करेगा, कहां सुनवाई होगी आदि. यही वजह है कि नेताओं के मामलों की सुनवाई सालों-साल नहीं होती. दरअसल, पुलिस व ज्यूडिशयल सिस्टम दोनों में भारी कमियां हैं. पुलिस महकमे में सुधार के न जाने कितने कमीशन बने, कमिटियां बनीं, सुप्रीम कोर्ट ने सुधार के आदेश दिये, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. जहां तक सोहराबुद्दीन के फर्जी एनकाउंटर का मामला है, तो उस बारे में मुझे पूरी जानकारी नहीं है, लेकिन मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उनके आधार पर मैं इसे घृणित काम करार देता हूं. मेरा मानना है कि इस घटना की जितनी भी निंदा की जाये कम है. यह जनता के भरोसे के साथ सरासर खिलवाड़ है. खास बात यह है कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है, बल्कि इससे पहले भी फर्जी मुठभेड़ों की खबरें सामने आती रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार, जम्मू-कश्मीर और नक्सल प्रभावित इलाकों में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं. एक दौर था, जब पंजाब में भी सीनियर अधिकारियों के नाम फर्जी मुठभेड़ों में आते रहे. हैरत होती है कि उन्हीं अधिकारियों को हीरो बना दिया गया. अब इसके लिए दोष किसे दें. कुछ हद तक इसमें मीडिया की भूमिका भी सही नहीं कही जा सकती. उसने इन लोगों को हीरो बनाया. ये लोग कई बार तर्क देते हैं कि समाज को अपराध मुक्त करने की कोशिशों में एक-आध निर्दोष की जान जा सकती है. लेकिन यह तर्क सरासर गलत है. अगर ऐसा होगा तो सारा सिस्टम ही बर्बाद हो जायेगा. जंगलराज आ जायेगा. जनता में असुरक्षा की भावना बढ़ेगी. देश में महज पावरवाले लोगों का राज चलेगा. अपराधी और निर्दोष का फर्क खत्म हो जायेगा. यानी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही तबाह हो जायेगी. इस समय पुलिस व न्याय व्यवस्था की जो हालत है, उसके लिए हमारा सरकारी तंत्र भी जिम्मेदार है. एक तो पॉलिटिक्स पूरी तरह बाजारू हो गयी है. ऐसे में अधिकारियों को भी मौका मिल जाता है, अपनी मनमानी करने का. इसके अलावा, ज्यादातर सरकारें कम वक्त ही सत्ता में रह पाती हैं. इन अस्थिर सरकारों की लांग टर्म सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं होती. वे ऐसे मैजिक की तलाश में होती हैं, जो तुरंत बदलाव ले आये. हालात तभी बदल सकते हैं, जब इस तरह के मसलों पर राजनीति से ऊपर उठकर सभी दल गंभीर होकर समाधान की कोशिश करें. इसके अलावा दोषियों को कठोर से कठोर दंड दिया जाना जरूरी है, ताकि दूसरे लोगों को एक सबक मिल सके. ज्यूडिशयल सिस्टम को मजबूत किया जाना चाहिए. इस सिस्टम की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए. कानून अगर ग्राउंड रियलिटी को ध्यान में रखकर न बनाये जायें, तो वे कभी प्रभावी नहीं हो सकते. आतंकवाद की रोकथाम के लिए अलग से कानून होना चाहिए. पहले था भी, लेकिन उसे हटा दिया गया. भारत जैसे आतंकवाद से ग्रसित मुल्क में ऐसे कानून के बिना काम नहीं चल सकता.
प्रस्तुति व संकलन : संजय कुमार
रांची से प्रकाशित एक समाचार पत्र प्रभात खबर से साभार
Tuesday, May 8, 2007
मगर हाकरों की अब किसको ज़रूरत है
बिमल राय
बिहार के समस्तीपुर जिले के हॉकर रघू का ठेहुना फूटा हुआ था. हाथ में चनाचूर के पैकेट थे और सांसें फूल रही थीं. हावड़ा से सबसे आखिरी, यानी पौने बारह बजे खुलने वाली इस लोकल ट्रेन के भुखाये व थके यात्रियों को चना बादाम बेचकर पांच साल से अपना गुजारा करता था वह. उस दिन वह रेलवे पुलिस की चपेट में आ गया और भागते भागते गिर पड़ा. हॉकरों के सामने अब कोई विकल्प नहीं है और रेलवे पुलिस हाल ही में आये हाइकोर्ट के फैसले को हर हाल में लागू करने पर आमादा है. इसे लेकर वाम मोरचा भी सड़क पर है और २३ अप्रैल को कोलकाता की सड़कों पर लहराते लाल पताके इसी नाराजगी को जाहिर कर रहे थे.
दरअसल पूर्व रेलवे की याचिका पर कोलकाता हाइकोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है, जो देश के करोड़ों रेलवे हॉकरों पर गाज बनकर गिरा है. हालांकि कोर्ट ने सिर्फ रेलवे एक्ट १४४ व १४४ ए को कड़ाई से लागू करने को कहा है, पर यह प्रकारांतर से रेलवे पर अवैध हॉकरों व भिखारियों को स्टेशन परिसरों से हटाने के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुआ है. रेलवे तत्काल इस पर अमल भी कर रहा है.
ये हॉकर वैध हों या अवैध, दशकों से शहरों व कस्बों के मध्य व निम्न मध्यवर्गीय जिंदगी का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. कम कीमत व सस्ते सामानों के लिए एक बड़ी आबादी इन पर आश्रित रही है. इन पर देश के कितने ही मध्यम व घरेलू उद्योग टिके हुए हैं. शहरी अर्थव्यवस्था में भी इनका योगदान कम अहम नहीं रहा है. दूसरे सामानों की बात न भी करें तो शहरी उपभोग की ७५ प्रतिशत सब्जी हॉकर ही बेचते हैं. हर नुक्कड़ पर चायवालों के पास इसीलिए भी भीड़ उमड़ती है कि वहां चाय बिस्किट पांच रुपये में मिल सकती है, जो किसी कैफे में ५० से १५० रुपये में मिलते हैं. ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हाइजिन एंड पब्लिक हेल्थ की ओर से कराये गये अध्ययन से पता चला है कि खाद्य सामग्री बेचने वाले हॉकरों के सात रुपये के खाने में एक हजार किलो कैलोरी प्राप्त् होती है. रेलवे ने अब १० रुपये में पूड़ी सब्जी वाला जनता खाना शुरू किया है, पर देश मेंे संभवत: रेलवे के जन्म के साथ से ही ये हॉकर कम कीमत पर आम जनता की सेवा करते आ रहे हैं.
हाइकोर्ट का फैसला तो अब आया है. इसके पहले भी अनधिकृत जमीनों पर या बिना लाइसेंंस दुकानें लगाने पर उन्हें उजाड़ने के अभियान चलाये जाते रहे हैं. शहरों को सुंदर बनाना है. मुंबई को शंघाई और कोलकाता को अत्याधुनिक बनाने की धुन है. राजीव गांधी ने कभी कोलकाता को मरता हुआ शहर कहा था. तब वाम सरकार को बहुत शर्म आयी थी. कोलकाता का देसी चेहरा अब उतना सुंदर नहीं लग रहा था. इसका रूप गोरी जैसा नहीं, रैंप पर थिरकती आधुनिक बाला की तरह दिखना मांगता था. राज्य सरकार ने छह साल पहले ही ऑपरेशन सनशाइन चलाया था. एक ही रात में तीन हजार हॉकर हटाये गये. उस अभियान में कुल एक लाख हॉकर हटाये गये थे. कानून का जोर बढ़ा तो उन लोगों ने अपना संगठन भी बना लिया है. सभी छोटे बड़े हॉकर संगठनों ने हॉकर संग्राम समिति बना ली. लंबी लड़ाई लड़ी गयी. मामला अदालत तक गया. बंगाल सरकार और कोलकाता नगर निगम की हार हुई और कोलकाता का चेहरा चमकाने वालों को पैर पीछे खींचने पड़े. हालांकि इस दौरान १८ हॉकरों ने आत्महत्या कर ली थी. मई २००१ में हॉकर संग्राम समिति की पहल से नेशनल हॉकर फेडरेशन का गठन हुआ, जो पूरे देश में हॉकरों के हित की लड़ाई लड़ रहा है. इनमें ५५० स्वतंत्र यूनियनें हैं, जिन्हें ११ केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का समर्थन हासिल है. इनकी सदस्य संख्या सवा ११ लाख है. फेडरेशन के संघर्ष का नतीजा यह हुआ कि केंद्र को हॉकरों पर एक राष्ट्रीय नीति बनानी पड़ी. शहरी रोजबार व गरीबी उन्मूलन मंत्रालय ने भी २००४ में नेशनल पॉलिसी ऑन अर्बन स्ट्रीट वेंडर्स के नाम से एक नीति बनायी. इस नीति से यह साफ हो गया कि सरकार हॉकरी को आय का एक जरिया नहीं मानती. यह करोड़ों शहरी गरीबों को कम कीमत पर रोजाना की जरूरतों की आपूर्ति का जरिया है.
सवाल है कि विकास किसके लिए? यदि हॉकर हटाने जैसे कथित विकासमूलक कदम से लाखों करोड़ों का दाना पानी छिनता है, तो भां़ड में जाये ऐसा विकास. भारतीय शहरों को शंघाई और हांगकांग बनाने के चक्कर में यदि हम गरीबों की एक नयी फौज खड़ी कर लेते हैं, तो फिर क्या फायदा? अभी हॉकरों पर बनी राष्ट्रीय नीति दिल्ली, पुणे, मुंबई, मध्य प्रदेश और प बंगाल में लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गयी है. पर अब भी देश में ब्रिटिश जमाने के ऐसे कानून हैं, जो हटाये नहीं गये हैं. विधायिका को इस दिशा में अभी और कुछ कदम उठाने की जरूरत है.
बिहार के समस्तीपुर जिले के हॉकर रघू का ठेहुना फूटा हुआ था. हाथ में चनाचूर के पैकेट थे और सांसें फूल रही थीं. हावड़ा से सबसे आखिरी, यानी पौने बारह बजे खुलने वाली इस लोकल ट्रेन के भुखाये व थके यात्रियों को चना बादाम बेचकर पांच साल से अपना गुजारा करता था वह. उस दिन वह रेलवे पुलिस की चपेट में आ गया और भागते भागते गिर पड़ा. हॉकरों के सामने अब कोई विकल्प नहीं है और रेलवे पुलिस हाल ही में आये हाइकोर्ट के फैसले को हर हाल में लागू करने पर आमादा है. इसे लेकर वाम मोरचा भी सड़क पर है और २३ अप्रैल को कोलकाता की सड़कों पर लहराते लाल पताके इसी नाराजगी को जाहिर कर रहे थे.
दरअसल पूर्व रेलवे की याचिका पर कोलकाता हाइकोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है, जो देश के करोड़ों रेलवे हॉकरों पर गाज बनकर गिरा है. हालांकि कोर्ट ने सिर्फ रेलवे एक्ट १४४ व १४४ ए को कड़ाई से लागू करने को कहा है, पर यह प्रकारांतर से रेलवे पर अवैध हॉकरों व भिखारियों को स्टेशन परिसरों से हटाने के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुआ है. रेलवे तत्काल इस पर अमल भी कर रहा है.
ये हॉकर वैध हों या अवैध, दशकों से शहरों व कस्बों के मध्य व निम्न मध्यवर्गीय जिंदगी का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. कम कीमत व सस्ते सामानों के लिए एक बड़ी आबादी इन पर आश्रित रही है. इन पर देश के कितने ही मध्यम व घरेलू उद्योग टिके हुए हैं. शहरी अर्थव्यवस्था में भी इनका योगदान कम अहम नहीं रहा है. दूसरे सामानों की बात न भी करें तो शहरी उपभोग की ७५ प्रतिशत सब्जी हॉकर ही बेचते हैं. हर नुक्कड़ पर चायवालों के पास इसीलिए भी भीड़ उमड़ती है कि वहां चाय बिस्किट पांच रुपये में मिल सकती है, जो किसी कैफे में ५० से १५० रुपये में मिलते हैं. ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हाइजिन एंड पब्लिक हेल्थ की ओर से कराये गये अध्ययन से पता चला है कि खाद्य सामग्री बेचने वाले हॉकरों के सात रुपये के खाने में एक हजार किलो कैलोरी प्राप्त् होती है. रेलवे ने अब १० रुपये में पूड़ी सब्जी वाला जनता खाना शुरू किया है, पर देश मेंे संभवत: रेलवे के जन्म के साथ से ही ये हॉकर कम कीमत पर आम जनता की सेवा करते आ रहे हैं.
हाइकोर्ट का फैसला तो अब आया है. इसके पहले भी अनधिकृत जमीनों पर या बिना लाइसेंंस दुकानें लगाने पर उन्हें उजाड़ने के अभियान चलाये जाते रहे हैं. शहरों को सुंदर बनाना है. मुंबई को शंघाई और कोलकाता को अत्याधुनिक बनाने की धुन है. राजीव गांधी ने कभी कोलकाता को मरता हुआ शहर कहा था. तब वाम सरकार को बहुत शर्म आयी थी. कोलकाता का देसी चेहरा अब उतना सुंदर नहीं लग रहा था. इसका रूप गोरी जैसा नहीं, रैंप पर थिरकती आधुनिक बाला की तरह दिखना मांगता था. राज्य सरकार ने छह साल पहले ही ऑपरेशन सनशाइन चलाया था. एक ही रात में तीन हजार हॉकर हटाये गये. उस अभियान में कुल एक लाख हॉकर हटाये गये थे. कानून का जोर बढ़ा तो उन लोगों ने अपना संगठन भी बना लिया है. सभी छोटे बड़े हॉकर संगठनों ने हॉकर संग्राम समिति बना ली. लंबी लड़ाई लड़ी गयी. मामला अदालत तक गया. बंगाल सरकार और कोलकाता नगर निगम की हार हुई और कोलकाता का चेहरा चमकाने वालों को पैर पीछे खींचने पड़े. हालांकि इस दौरान १८ हॉकरों ने आत्महत्या कर ली थी. मई २००१ में हॉकर संग्राम समिति की पहल से नेशनल हॉकर फेडरेशन का गठन हुआ, जो पूरे देश में हॉकरों के हित की लड़ाई लड़ रहा है. इनमें ५५० स्वतंत्र यूनियनें हैं, जिन्हें ११ केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का समर्थन हासिल है. इनकी सदस्य संख्या सवा ११ लाख है. फेडरेशन के संघर्ष का नतीजा यह हुआ कि केंद्र को हॉकरों पर एक राष्ट्रीय नीति बनानी पड़ी. शहरी रोजबार व गरीबी उन्मूलन मंत्रालय ने भी २००४ में नेशनल पॉलिसी ऑन अर्बन स्ट्रीट वेंडर्स के नाम से एक नीति बनायी. इस नीति से यह साफ हो गया कि सरकार हॉकरी को आय का एक जरिया नहीं मानती. यह करोड़ों शहरी गरीबों को कम कीमत पर रोजाना की जरूरतों की आपूर्ति का जरिया है.
सवाल है कि विकास किसके लिए? यदि हॉकर हटाने जैसे कथित विकासमूलक कदम से लाखों करोड़ों का दाना पानी छिनता है, तो भां़ड में जाये ऐसा विकास. भारतीय शहरों को शंघाई और हांगकांग बनाने के चक्कर में यदि हम गरीबों की एक नयी फौज खड़ी कर लेते हैं, तो फिर क्या फायदा? अभी हॉकरों पर बनी राष्ट्रीय नीति दिल्ली, पुणे, मुंबई, मध्य प्रदेश और प बंगाल में लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गयी है. पर अब भी देश में ब्रिटिश जमाने के ऐसे कानून हैं, जो हटाये नहीं गये हैं. विधायिका को इस दिशा में अभी और कुछ कदम उठाने की जरूरत है.
Monday, May 7, 2007
खुदरावालों सोचो तुम कहां जाओगे
घातक सिद्ध होगा वालमार्ट का प्रवेश
पीपुल्स न्यूज नेटवर्क की खबर
विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी वालमार्ट और भारत के भारती ग्रुप के बीच 50-50 प्रतिशत पूंजी लागत पर आधारित खुदरा व्यापार में हाल ही में जो करार हुआ है, वह इस कंपनी का चोर दरवाजे से भारत में प्रवेश का रास्ता मात्र है. 316 मिलियन डॉलर के कुल कारोबारवाले व्यवसाय में ११.2 बिलियन मुनाफा कमानेवाली वालमार्ट कंपनी उस अजगर की भांति है, जो भारत के खुदरा व्यापार को निगल लेने की क्षमता रखती है. अमेरिका के खुदरा व्यापार के 20 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा जमा कर बैठ चुकी कंपनी वालमार्ट की नजर अब भारत के खुदरा बाजार पर कुंडली मारकर बैठने की है. विषय यह नहीं है कि वालमार्ट `फ्रंट एंड' का कार्य देखेगी या `बैक एंड' का. यदि सरकार ने इन कंपनियों के प्रवेश को मंजूरी दी है, तो देर-सवेर भारतीय खुदरा व्यापार के लिए यह घातक सिद्ध होगा. भारत के नागरिकों को दो जून की रोटी उपलब्ध कराने का सबसे आसान व्यवसाय खुदरा व्यापार है. भारत का 80 प्रतिशत असंगठित खुदरा व्यापार देश के करोड़ों परिवारों को रोजगार प्रदान करता है. इनमें अधिकतर आबादी उन लोगों की है, जो समाज में या तो हाशिये पर हैं या सरकार की सूची में गरीबी रेखा के ईद-गिर्द नाच रहे हैं. अब इनकी भूख पर देश के पश्चिमी चमक-दमक से प्रभावित नेताओं, उद्योगपतियों एवं विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि लगी है. खुदरा व्यापार पर कब्जा कर वे इनके मुंह से निकला निवाला भी नोच खाना चाहते हैं. राष्ट्रीय व्यापार में घरेलू उद्योग लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा है. इसमें असंगठित खुदरा व्यापार का वर्चस्व है. इससे लगभग पांच करोड़ छोटे व्यापारी जुड़े हैं. इस शक्तिशाली क्षेत्र में योजनाबद्ध ढंग से विदेशी पूंजी निवेश की छूट दे दी गयी. यह तो शुरुआत थी, इस क्षेत्र में भविष्य में आनेवाले बवंडर की. विदेशी कंपनियां इस इंतजार में पहले से ही बैठी थीं और उनका रास्ता आसान बनाने के लिए यहां सरकार में बैठे थे प्रधानमंत्री, वाणिज्य मंत्री, वित्त मंत्री एवं योजना आयोग के उपाध्यक्ष. वालमार्ट के मुखिया इस वर्ष के प्रारंभ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल कर उन्हें समझा चुके थे. वित्त मंत्री पी चिदंबरम एवं योजना आयोग के उपाध्यक्ष शुरू से ही निवेश बढ़ाने का मंत्र जाप रहे थे. रही-सही कसर वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने पूरी कर दी. उन्होंने जिस दिन कहा कि भारती-वालमार्ट समझौते का अध्ययन करेंगे कि यह ठीक है या नहीं, उसके अगले दिन उन्होंने कह दिया कि इस समझौते से देश में रोजगार का सृजन होगा. काश, कोई इन्हें बताता कि जब भी वालमार्ट कंपनी किसी देश में गयी है, वहां उसने रोजगार का भक्षण किया है, सृजन नहीं. इतना ही नहीं, स्वप्निल-से दिखनेवाले वालमार्ट के मॉल में श्रम कानूनों का स्पष्ट उल्लंघन होता है. इस आरोप में कई बार इन कंपनियों को सजा भी हो चुकी है. स्पष्ट है, खुदरा व्यापार में पहले से कार्यरत छोटे-छोटे खुदरा व्यापारियों का जीना मुहाल हो जायेगा. सरकार ने कभी भी संभावना से भरे इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित नहीं किया. सरकार द्वारा प्रतिस्पर्द्धा की बात कह कर देसी विशाल कंपनियों को संगठित खुदरा व्यापार में प्रवेश देना गलत है. दरअसल शुरुआत में सरकारी छूट व सुविधाओं का लाभ उठा कर ये कंपनियां इस क्षेत्र में प्रवेश करती हैं. बाद में अपने को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में बेच कर तथाकथित प्रतिस्पर्धा को ही समाप्त कर देती हैं. करीब बीस देशों में पौने तीन हजार से भी अधिक स्टोर चलाने वाली वालमार्ट जैसी कंपनी के लिए देश के सौ-दो सौ स्टोरों को खरीदना बहुत आसान है. प्रसंस्करण, भंडारण, वितरण एवं बिक्री में इनकी इतनी क्षमता है कि छोटी खुदरा कंपनियों की क्या बात, देश की बड़ी कंपनियां भी इनके साथ प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पायेंगी. तड़क-भड़क के अलावा सस्ती दर पर सामान बेचने की इनकी क्षमता वर्षों चल सकती है. ये अपना व्यवसाय बिना मुनाफे के सालों चला सकते हैं. तब तक छोटे दुकानदारों का तो सत्यानाश हो जायेगा. बाद में इनका बाजार पर एकाधिकार बन जायेगा. इस पूरे प्रकरण में वामपंथियों की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गयी है. वे चाह कर भी इस मामले में सरकार का विरोध प्र्रभावी ढंग से नहीं कर पा रहे हैं. उधर सरकार उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर एक-के बाद एक जनविरोधी निर्णय ले रही है. चाहे सेज का मुद्दा हो या खुदरा व्यापार का या निवेश का. कथित जनवादी संगठनों के अस्तित्व पर इस प्रकार का प्रश्नचिह्र इतिहास में इससे पूर्व कभी नहीं लगा था. यदि इतने बड़े और गलत निर्णयों के बावजूद वामपंथी दल सरकार को समर्थन देते रहते हैं, तो आनेवाले दिनों में इनका अस्तित्व बचना मुश्किल हो जायेगा. भारती इंटरप्राइजेज एवं वालमार्ट के बीच करार की घोषणा से देश में भूचाल जैसी स्थिति बनना स्वाभाविक है. आनेवाले दिनों में वालमार्ट के विरुद्ध संघर्ष तेज होने की पूरी संभावना है.
पीपुल्स न्यूज नेटवर्क की खबर
विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी वालमार्ट और भारत के भारती ग्रुप के बीच 50-50 प्रतिशत पूंजी लागत पर आधारित खुदरा व्यापार में हाल ही में जो करार हुआ है, वह इस कंपनी का चोर दरवाजे से भारत में प्रवेश का रास्ता मात्र है. 316 मिलियन डॉलर के कुल कारोबारवाले व्यवसाय में ११.2 बिलियन मुनाफा कमानेवाली वालमार्ट कंपनी उस अजगर की भांति है, जो भारत के खुदरा व्यापार को निगल लेने की क्षमता रखती है. अमेरिका के खुदरा व्यापार के 20 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा जमा कर बैठ चुकी कंपनी वालमार्ट की नजर अब भारत के खुदरा बाजार पर कुंडली मारकर बैठने की है. विषय यह नहीं है कि वालमार्ट `फ्रंट एंड' का कार्य देखेगी या `बैक एंड' का. यदि सरकार ने इन कंपनियों के प्रवेश को मंजूरी दी है, तो देर-सवेर भारतीय खुदरा व्यापार के लिए यह घातक सिद्ध होगा. भारत के नागरिकों को दो जून की रोटी उपलब्ध कराने का सबसे आसान व्यवसाय खुदरा व्यापार है. भारत का 80 प्रतिशत असंगठित खुदरा व्यापार देश के करोड़ों परिवारों को रोजगार प्रदान करता है. इनमें अधिकतर आबादी उन लोगों की है, जो समाज में या तो हाशिये पर हैं या सरकार की सूची में गरीबी रेखा के ईद-गिर्द नाच रहे हैं. अब इनकी भूख पर देश के पश्चिमी चमक-दमक से प्रभावित नेताओं, उद्योगपतियों एवं विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि लगी है. खुदरा व्यापार पर कब्जा कर वे इनके मुंह से निकला निवाला भी नोच खाना चाहते हैं. राष्ट्रीय व्यापार में घरेलू उद्योग लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा है. इसमें असंगठित खुदरा व्यापार का वर्चस्व है. इससे लगभग पांच करोड़ छोटे व्यापारी जुड़े हैं. इस शक्तिशाली क्षेत्र में योजनाबद्ध ढंग से विदेशी पूंजी निवेश की छूट दे दी गयी. यह तो शुरुआत थी, इस क्षेत्र में भविष्य में आनेवाले बवंडर की. विदेशी कंपनियां इस इंतजार में पहले से ही बैठी थीं और उनका रास्ता आसान बनाने के लिए यहां सरकार में बैठे थे प्रधानमंत्री, वाणिज्य मंत्री, वित्त मंत्री एवं योजना आयोग के उपाध्यक्ष. वालमार्ट के मुखिया इस वर्ष के प्रारंभ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल कर उन्हें समझा चुके थे. वित्त मंत्री पी चिदंबरम एवं योजना आयोग के उपाध्यक्ष शुरू से ही निवेश बढ़ाने का मंत्र जाप रहे थे. रही-सही कसर वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने पूरी कर दी. उन्होंने जिस दिन कहा कि भारती-वालमार्ट समझौते का अध्ययन करेंगे कि यह ठीक है या नहीं, उसके अगले दिन उन्होंने कह दिया कि इस समझौते से देश में रोजगार का सृजन होगा. काश, कोई इन्हें बताता कि जब भी वालमार्ट कंपनी किसी देश में गयी है, वहां उसने रोजगार का भक्षण किया है, सृजन नहीं. इतना ही नहीं, स्वप्निल-से दिखनेवाले वालमार्ट के मॉल में श्रम कानूनों का स्पष्ट उल्लंघन होता है. इस आरोप में कई बार इन कंपनियों को सजा भी हो चुकी है. स्पष्ट है, खुदरा व्यापार में पहले से कार्यरत छोटे-छोटे खुदरा व्यापारियों का जीना मुहाल हो जायेगा. सरकार ने कभी भी संभावना से भरे इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित नहीं किया. सरकार द्वारा प्रतिस्पर्द्धा की बात कह कर देसी विशाल कंपनियों को संगठित खुदरा व्यापार में प्रवेश देना गलत है. दरअसल शुरुआत में सरकारी छूट व सुविधाओं का लाभ उठा कर ये कंपनियां इस क्षेत्र में प्रवेश करती हैं. बाद में अपने को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में बेच कर तथाकथित प्रतिस्पर्धा को ही समाप्त कर देती हैं. करीब बीस देशों में पौने तीन हजार से भी अधिक स्टोर चलाने वाली वालमार्ट जैसी कंपनी के लिए देश के सौ-दो सौ स्टोरों को खरीदना बहुत आसान है. प्रसंस्करण, भंडारण, वितरण एवं बिक्री में इनकी इतनी क्षमता है कि छोटी खुदरा कंपनियों की क्या बात, देश की बड़ी कंपनियां भी इनके साथ प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पायेंगी. तड़क-भड़क के अलावा सस्ती दर पर सामान बेचने की इनकी क्षमता वर्षों चल सकती है. ये अपना व्यवसाय बिना मुनाफे के सालों चला सकते हैं. तब तक छोटे दुकानदारों का तो सत्यानाश हो जायेगा. बाद में इनका बाजार पर एकाधिकार बन जायेगा. इस पूरे प्रकरण में वामपंथियों की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गयी है. वे चाह कर भी इस मामले में सरकार का विरोध प्र्रभावी ढंग से नहीं कर पा रहे हैं. उधर सरकार उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर एक-के बाद एक जनविरोधी निर्णय ले रही है. चाहे सेज का मुद्दा हो या खुदरा व्यापार का या निवेश का. कथित जनवादी संगठनों के अस्तित्व पर इस प्रकार का प्रश्नचिह्र इतिहास में इससे पूर्व कभी नहीं लगा था. यदि इतने बड़े और गलत निर्णयों के बावजूद वामपंथी दल सरकार को समर्थन देते रहते हैं, तो आनेवाले दिनों में इनका अस्तित्व बचना मुश्किल हो जायेगा. भारती इंटरप्राइजेज एवं वालमार्ट के बीच करार की घोषणा से देश में भूचाल जैसी स्थिति बनना स्वाभाविक है. आनेवाले दिनों में वालमार्ट के विरुद्ध संघर्ष तेज होने की पूरी संभावना है.
Sunday, May 6, 2007
ब्राह्मणों को नाराज़ किया तो ढोना पड़ रहा है पाखाना
बबन रावत
भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल एवं प्राचीन देश है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों के अंतर्गत तकरीबन साढ़े छह हजार जातियां हैं, जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं भंगी को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है.
मनु महाराज अपने ग्रंथ मनु स्मृति में अध्याय 10 के श्लोक 51 से 56 तक में लिखते हैं कि चांडालों एवं स्वपचों के आवास गांव से बाहर होंगे. उन्हें अपात्र बना देना चाहिए. वे चिह्रित प्रतीकों के जरिये पहचाने जायें, दूसरे लोग उनके संपर्क में न आयें. चांडालों का पात्र टूटा हुआ बरतन होगा, भोजन जूठा व बासी होगा, जो दूसरों द्वारा दिया हुआ होगा. इनका कार्य होगा लावारिस लाशों को दफनाना. संपत्ति होंगे कुत्ते व गधे और वस्त्र होगा मुरदों का उतरन.
पराशर स्मृति (अध्याय- छह, श्लोक - 24) तथा व्यास स्मृति (अध्याय-1 /11, श्लोक - 12) में चांडालों के बारे में लिखा गया है कि अगर कोई व्यक्ति चांडाल, स्वपच को भूल से भी देख ले तो उसी समय सूर्य की ओर देख ले और स्नान क रे, तभी वह शुद्ध हो सक ता है.
इतिहासकार झा और श्रीमाली अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास (पृष्ठ संख्या-310) में लिखते हैं कि जिस प्रकार फाहियान ने पांचवी शताब्दी में अछूतों का वर्णन कि या है, उसी प्रकार ह्वेनसांग ने भी अस्पृश्यता का उल्लेख किया है. वह लिखता है कि कसाई और मेहतर नगर के बाहर ऐसे मकानों में निवास क रते थे, जो विशेष चिह्र से जाने जा सकते थे. साधारणत: चांडालों की श्रेणी से मेहतर और डोम नाम की जाति प्रकट हुई, जिनका पेशा सड़कों और गलियों को साफ करना, विष्ठा(मल)उठाना, श्मशान में शवों को दफन करना, अपराधियों को फांसी पर लटकाना और रात में चोरों को पक ड़ना था.
यदि जैन स्रोतों पर विश्वास कि या जाये तो आज के भंगी समाज के लोग ब्राह्मणवाद के शिकार हुए हैं. भंगी का अर्थ होता है भंग कि या हुआ अर्थात समाज से टूटे तथा बिछड़े हुए लोग अथवा दंड देक र या बहिष्कृत कर निकाले हुए लोग. एक दूसरे मत के अनुसार गुप्त काल में भूमि हस्तानांतरण अथवा भूमि राजस्व की प्रथा से कायस्थों के रूप में एक नयी जाति का जन्म हुआ, जिन्होंने ब्राह्मणों के लेखन संबंध एकाधिकार को चुनौती देते हुए उनके वर्चस्व को समाप्त क र दिया. यही कारण है कि परवर्ती ब्राह्मण साहित्य में कायस्थों की बड़ी भर्त्सना की गयी है, उन्हें शूद्र तक कहा गया है.
ठीक उसी समय (गुप्त काल) उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गांव के सरदारों और मुखिया की एक श्रेणी उभर कर आयी जो महत्तर कहलाते थे. उन्हें जमीन की अदला-बदली की सूचना दी जाती थी, जो बाद में एक जाति के रू प में परिणत हो गये. संभवत: आज के मेहतर ही गुप्त काल में महत्तर कहलाता हो. और गुप्तकालीन महत्तर का अपभ्रंश होकर आज मेहतर हो गया हो, जिसका आधिपत्य मुखिया और सरदार के रू प में उत्तर भारत के गांवों में रहा होगा. मेहतर समाज के सामाजिक ढांचे में भी पुराने समय से मुखिया और सरदारी प्रथा कायम है जो गुप्त कालीन महत्तर समाज से मेल खाता है. हो सक ता है कायस्थों की तरह गुप्त काल में मेहतरों ने भी ब्राह्मणों को चुनौती दी हो और कुपित ब्राह्मणों ने उन्हें भी नीच, पतित और चांडाल घोषित कर समाज से बहिष्कृत कर इनसे शिक्षा और शासन का अधिकार छीन लिया हो. इस तरह मुख्यधारा से कटे तथा समाज से भंग किये हुए लोग कालांतर में भंगी कहलाये हों और सजा के तौर पर मानव के मल को ढोने को मजबूर कर दिये गये हों.
एक दूसरे मत के अनुसार, आर्यों के आक्रमण के समय ऐसा प्रतीत होता है कि आज के भंगी समाज के लोगों ने अन्य मूल निवासियों की तरह साथ मिल कर दुश्मनों के खिलाफ काफी विस्तारपूर्वक संघर्ष किया होगा, जिसे आर्य-अनार्य या देव-असुर संग्राम के नाम से भी जाना जाता है. लेकि न आर्यों की युद्ध विद्या, घुड़सवार शैली एवं छल-प्रपंच के आगे अनार्यों की हार हुई, जैसाकि हमेशा होता है. युद्ध में जो लोग जितनी वीरता से लड़ते हुए दुश्मनों द्वारा पराजित होक र उनकी गिरफ्त में आते हैं, उन्हें उतनी बड़ी सजा भी दी जाती है. हो सक ता है कि लड़ाकू भंगी समाज के लोग आर्यों की गिरफ्त में आने के बाद दास बना लिये गये हों और इनको क ठोर सजा के तौर पर इनसे मानव मल और गंदगी को साफ क रने जैसा घृणित कार्य को जबरन कराया गया हो. जबकि यह सर्वविदित है कि आर्यों के आने के पहले मानव मल ढोने की प्रथा भारत में कहीं नहीं थी.
विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यता, सिंधु घाटी के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई से भी यह स्पष्ट हो गया है कि उस समय मानव मल ढोने की प्रथा नहीं थी, बल्कि आज की तरह आधुनिक सीवर प्रणाली के शौचालयों का प्रमाण मिलता है. इससे पता चलता है कि मानव से मल ढुलवाने की प्रथा शुरू की नहीं है, बल्कि बाद की है.
भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल एवं प्राचीन देश है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों के अंतर्गत तकरीबन साढ़े छह हजार जातियां हैं, जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं भंगी को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है.
मनु महाराज अपने ग्रंथ मनु स्मृति में अध्याय 10 के श्लोक 51 से 56 तक में लिखते हैं कि चांडालों एवं स्वपचों के आवास गांव से बाहर होंगे. उन्हें अपात्र बना देना चाहिए. वे चिह्रित प्रतीकों के जरिये पहचाने जायें, दूसरे लोग उनके संपर्क में न आयें. चांडालों का पात्र टूटा हुआ बरतन होगा, भोजन जूठा व बासी होगा, जो दूसरों द्वारा दिया हुआ होगा. इनका कार्य होगा लावारिस लाशों को दफनाना. संपत्ति होंगे कुत्ते व गधे और वस्त्र होगा मुरदों का उतरन.
पराशर स्मृति (अध्याय- छह, श्लोक - 24) तथा व्यास स्मृति (अध्याय-1 /11, श्लोक - 12) में चांडालों के बारे में लिखा गया है कि अगर कोई व्यक्ति चांडाल, स्वपच को भूल से भी देख ले तो उसी समय सूर्य की ओर देख ले और स्नान क रे, तभी वह शुद्ध हो सक ता है.
इतिहासकार झा और श्रीमाली अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास (पृष्ठ संख्या-310) में लिखते हैं कि जिस प्रकार फाहियान ने पांचवी शताब्दी में अछूतों का वर्णन कि या है, उसी प्रकार ह्वेनसांग ने भी अस्पृश्यता का उल्लेख किया है. वह लिखता है कि कसाई और मेहतर नगर के बाहर ऐसे मकानों में निवास क रते थे, जो विशेष चिह्र से जाने जा सकते थे. साधारणत: चांडालों की श्रेणी से मेहतर और डोम नाम की जाति प्रकट हुई, जिनका पेशा सड़कों और गलियों को साफ करना, विष्ठा(मल)उठाना, श्मशान में शवों को दफन करना, अपराधियों को फांसी पर लटकाना और रात में चोरों को पक ड़ना था.
यदि जैन स्रोतों पर विश्वास कि या जाये तो आज के भंगी समाज के लोग ब्राह्मणवाद के शिकार हुए हैं. भंगी का अर्थ होता है भंग कि या हुआ अर्थात समाज से टूटे तथा बिछड़े हुए लोग अथवा दंड देक र या बहिष्कृत कर निकाले हुए लोग. एक दूसरे मत के अनुसार गुप्त काल में भूमि हस्तानांतरण अथवा भूमि राजस्व की प्रथा से कायस्थों के रूप में एक नयी जाति का जन्म हुआ, जिन्होंने ब्राह्मणों के लेखन संबंध एकाधिकार को चुनौती देते हुए उनके वर्चस्व को समाप्त क र दिया. यही कारण है कि परवर्ती ब्राह्मण साहित्य में कायस्थों की बड़ी भर्त्सना की गयी है, उन्हें शूद्र तक कहा गया है.
ठीक उसी समय (गुप्त काल) उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गांव के सरदारों और मुखिया की एक श्रेणी उभर कर आयी जो महत्तर कहलाते थे. उन्हें जमीन की अदला-बदली की सूचना दी जाती थी, जो बाद में एक जाति के रू प में परिणत हो गये. संभवत: आज के मेहतर ही गुप्त काल में महत्तर कहलाता हो. और गुप्तकालीन महत्तर का अपभ्रंश होकर आज मेहतर हो गया हो, जिसका आधिपत्य मुखिया और सरदार के रू प में उत्तर भारत के गांवों में रहा होगा. मेहतर समाज के सामाजिक ढांचे में भी पुराने समय से मुखिया और सरदारी प्रथा कायम है जो गुप्त कालीन महत्तर समाज से मेल खाता है. हो सक ता है कायस्थों की तरह गुप्त काल में मेहतरों ने भी ब्राह्मणों को चुनौती दी हो और कुपित ब्राह्मणों ने उन्हें भी नीच, पतित और चांडाल घोषित कर समाज से बहिष्कृत कर इनसे शिक्षा और शासन का अधिकार छीन लिया हो. इस तरह मुख्यधारा से कटे तथा समाज से भंग किये हुए लोग कालांतर में भंगी कहलाये हों और सजा के तौर पर मानव के मल को ढोने को मजबूर कर दिये गये हों.
एक दूसरे मत के अनुसार, आर्यों के आक्रमण के समय ऐसा प्रतीत होता है कि आज के भंगी समाज के लोगों ने अन्य मूल निवासियों की तरह साथ मिल कर दुश्मनों के खिलाफ काफी विस्तारपूर्वक संघर्ष किया होगा, जिसे आर्य-अनार्य या देव-असुर संग्राम के नाम से भी जाना जाता है. लेकि न आर्यों की युद्ध विद्या, घुड़सवार शैली एवं छल-प्रपंच के आगे अनार्यों की हार हुई, जैसाकि हमेशा होता है. युद्ध में जो लोग जितनी वीरता से लड़ते हुए दुश्मनों द्वारा पराजित होक र उनकी गिरफ्त में आते हैं, उन्हें उतनी बड़ी सजा भी दी जाती है. हो सक ता है कि लड़ाकू भंगी समाज के लोग आर्यों की गिरफ्त में आने के बाद दास बना लिये गये हों और इनको क ठोर सजा के तौर पर इनसे मानव मल और गंदगी को साफ क रने जैसा घृणित कार्य को जबरन कराया गया हो. जबकि यह सर्वविदित है कि आर्यों के आने के पहले मानव मल ढोने की प्रथा भारत में कहीं नहीं थी.
विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यता, सिंधु घाटी के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई से भी यह स्पष्ट हो गया है कि उस समय मानव मल ढोने की प्रथा नहीं थी, बल्कि आज की तरह आधुनिक सीवर प्रणाली के शौचालयों का प्रमाण मिलता है. इससे पता चलता है कि मानव से मल ढुलवाने की प्रथा शुरू की नहीं है, बल्कि बाद की है.
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