Sunday, May 13, 2007

सोहराबु्द्दीन की हत्या : कुछ नये आयाम

शर्मनाक स्वीकारोक्ति से उठे सवाल
विश्वनाथ सचदेव
सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में दिया गया गुजरात सरकार का यह बयान कि ये दोनों एनकाउंटर में नहीं मारे गये थे, बल्कि पुलिस ने सोच-समझ क र उनकी हत्या की थी, किसी सरकार द्वारा की गयी एक महत्वपूर्ण और शर्मनाक स्वीकारोक्ति है. यह बात भी कम महत्वपूर्ण और शर्मनाक नहीं है कि इस स्वीकारोक्ति से देश का आम आदमी चौंका नहीं है. जाहिर है कि इस तरह के एनकाउंटर आम बात हो चुके हैं और व्यवस्था और समाज, दोनों, यह मान कर चल रहे हैं कि `खास तरह' के अपराधियों से निबटने का यही एक कारगर तरीका है.
गुजरात में इस तरह कि सी `खतरनाक अपराधी' को पहली बार खत्म नहीं कि या गया है. 2003 से लेकर 2006 के बीच नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कम से कम 27 `एनकाउंटर' हो चुके हैं. यह कहना तो कठिन है कि इनमें से कि तने सचमुच एनकाउंटर थे और कितने फर्जी, लेकिन यह इस बात का सबूत तो हैं ही कि कथित अपराधियों के खात्मे का यह तरीका प्रशासन को रास आता है. गुजरात के पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में तो पुलिस विभाग में एनकाउंटर विशेषज्ञ हैं. किस विशेषज्ञ ने कितने `अपराधियों' को खत्म कि या, इसका रिकार्ड रखा जाता है. इन शूरवीरों को तमगे और पदोन्नतियां मिलती हैं. यह बात और है कि इनमें से कई के खिलाफ अवैध संपत्ति, अवैध कारनामों की जांच हो रही हैं, बावजूद इसके आमतौर पर देखा यही गया है कि इन बहादुरों को हीरो ही बनाया जाता है. गुजरात में भी एंटी टेररिज्म स्क्वाड के मुखिया डीजी बंजारा की मोदी सरकार कई बार पीठ थपथपा चुकी है. इन्हीं के निर्देशन में सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी की हत्या की योजना क्रियान्वित हुई थी. तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी और अब गुजरात सरकार द्वारा गिरफ्तारी को अंजाम देनेवाले अफसर के पर कुतरने की कार्रवाई इस बात का प्रमाण है कि पुलिस यह काम सरकारी समर्थन (या शह?) के बिना नहीं करती. बात सिर्फ पुलिस तक ही सीमित नहीं हैं, गुजरात या महाराष्ट्र तक भी नहीं. हम देख चुके हैं कि कश्मीर और असम में कैसे सेना आतंकवादी बता कर निर्दोषों का एनकाउंटर कर चुकी है. अक्सर इस अवैध और अमानुषिक कार्रवाई के शिकार बेगुनाह होते हैं. गुजरात का यह मामला नवीनतम उदाहरण है. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में भाजपा नेता वीके मल्होत्रा कह रहे हैं कि सोहराबुद्दीन जैसे व्यक्ति को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए, वह भयादोहन जैसी गतिविधियों में लिप्त था, लेकिन इस सच क कै से नकारा जाये कि सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी न आतंकवादी थे, न लश्क र-ए-तोएबा के लिए काम करते थे और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री को मारने की साजिश कर रहे थे? वैसे भी पुलिस का काम अपराधियों को पक ड़ना, उन्हें सजा दिलाना है, बिना किसी सुनवाई के सजा देना नहीं. कम से कम कानून के शासन में ऐसा नहीं होता. तानाशाही में हो सकता है ऐसा. सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी बस द्वारा हैदराबाद से सांगली जा रहे थे। नवंबर में इस यात्रा के दौरान उन्हें बंदी बनाया गया और गुजरात ले जाकर पहले पति और फिर पत्नी को मार डाला गया। फिर घटना के एक चश्मदीद गवाह को भी समाप्त कर दिया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की उपस्थिति में. बाकी मामलों की तरह यह मामला भी गुमनामी में पड़ा रहता, यदि सोहराबुद्दीन का भाई न्यायालय का दरवाजा न खटखटाता और लगातार खटखटाता न रहता. अब जबकि खुद गुजरात सरकार ने यह स्वीकारा है कि न तो उसके पास सोहराबुद्दीन के आतंकवादी होने के कोई प्रमाण हैं और न ही उसकी मृत्यु एनकांउटर में हुई थी, यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस तरह के नकली एनकाउंटरों से बचा कैसे जाये. गुजरात का यह प्रकरण न्यायालय के विचाराधीन है. आशा की जानी चाहिए कि जल्दी ही सही गलत सामने आ जायेगा और कानून अपने हाथ में लेनेवाले पुलिस अधिकारियों और सत्ता का गलत उपयोग करनेवाली व्यवस्था को उचित सजा और प्रताड़ना मिलेगी. लेकिन एनक उंटर-संस्कृति के पीछे जो कारण बताये जाते हैं, उनमें से एक यह भी है कि हमारी कानूनी प्रक्रिया ऐसी है जिसमें अक्सर अपराधी बच जाते हैं, इसलिए पुलिस को ऐसा करना पड़ता है. यदि ऐसा हो, तो इसके लिए कानूनी प्रक्रिया में अपेक्षित परिवर्तन होना चाहिए. अपराध खत्म करने के नाम पर किसी निरपराध को मारना अजनतांत्रिक ही नहीं, अमानवीय भी है. कानून के शासन और संविधान की मर्यादाओं का तकाजा है कि यह अपनी तरह का अंतिम उदाहरण हो. न्यायालय इस संदर्भ में अपना काम क र रहा है. गुजरात के इस तरह के 29 एनकांउटरों के बारे में विचार करना है उसे. लेकिन सत्ता के मद में अंधी व्यवस्था को सावधान करने का काम समाज को ही करना है.


क्या है मामला?
सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स को पुलिस अधिकारियों ने लश्कर का आतंकवादी बता फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा. उजैन के पास स्थित गांव झिरनया निवासी सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच है. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है.
कटघरे में कौन : गुजरात के डीआइजी डीजी बंजारा, एसपी राजकुमार पांड्यन और राजस्थान में अलवर के एसपी एमएन दिनेश. तीनों गिरफ्तार. पुलिस के कुछ और अधिकारियों के नाम सामने आने की संभावना.
फूलप्रूफ प्लानिंग
22 नवंबर 2005 : बस से हैदराबाद से सांगली जा रहे पति-पत्नी सोहराबुद्दीन शेख व कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति को पुलिस ने बिना अरेस्ट वारेंट के उतार लिया. कौसर बी को उतारने के लिए कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं.
24 नवंबर 2005 :
गोपनीय पूछताछ के नाम पर एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इन्हें व्यापारी गिरीश पटेल के गांधीनगर के पास जमियतपुरा स्थित फार्म हाऊस में ले गये.
26 नवंबर 2005 : 25-26 की रात पुलिस सोहराबुद्दीन को अहमदाबाद के पास ले गयी. तीनों अधिकारी पहले से मौजूद. एक कांस्टेबल को एटीएस में रखी हीरो होंडा बाइक लाने को कहा गया. तड़के करीब 4 बजे राजस्थान पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर ने थोड़ी दूर तक बाइक चलायी और चलती बाइक को सड़क पर रपट कर कूद गया. सोहराबुद्दीन को भी कार से निकालकर बाइक के पास फेंका गया. 4 इंस्पेक्टरों ने उसे गोलियों से भून डाला.
28 नवंबर 2005 : कौसर बी की हत्या कर शव को जला दिया गया. सीआइडी के मुताबिक हत्या बंजारा के गांव के पास की गयी.


वर्दीवाला कातिल
फिल्मों में जिस तरह फर्जी मुठभेड़ों को फिल्माया जाता रहा है, वह दिखाता है कि वे फिल्मकारों की कल्पना से ज्यादा समाज की हकीकत हैं. हाल के दिनों में यह चेहरा खुलकर जनता के सामने भी आया है. एनकाउंटर समाज में अपराधियों से मुक्त करने का पुलिस का एक धारदार फार्मूला है, जहां कानून, जांच, सबूत औरा अदालत के लिए कोई जगह नहीं. सिर्फ अपराधी-आतंकवादी ही नहीं, सामान्य लोग भी अब एनकाउंटर का शिकार बन रहे हैं. फर्जी मुठभेड़ को लेकर देशभर में एक जोरदार बहस चल पड़ी है. आखिर क्या वजह है कि पुलिस कई बार न्यायिक व्यवस्था को लांघकर फर्जी मुठभेड़ का तरीका अपनाती है. ज्यादा दिन नहीं हुए हैं मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक के कारनामे की पोल खुले. सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स का पुलिस अधिकारियों द्वारा लश्कर का आतंकवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा गया. जबकि सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच हैं. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है. इस मामले में गुजरात के डिआइजी डीजी बंजारा, एसपी राजकुमार पांड्यन और राजस्थान के अलवर के एसपी एमएन दिनेश को कटघरे में ला खड़ा किया. क्या पुलिस को इस तरह के एनकाउंटर के अधिकार होने चाहिए? इस पर पूरे देश में बहस छिड़ गयी है. पचास के दशक में डाकुओं के खिलाफ एनकाउंटर होते थे, फिर नक्सलियों के खिलाफ और फिर आतंकवादियों और माफियाओं के खिलाफ एंनकाउंटर को अंजाम दिया जाने लगा. यह सिलसिला आज भी जारी है. ऐसे एनकाउंटरों के बाद पुलिस के पास सीधा और सटीक सा जवाब होता है कि जब इस तरह के आपराधिक लोग पुलिस के सामने अपराध करने लगे या फिर पुलिस पर ही गोली बरसाने लगे, तो पुलिस को अपनी आत्म रक्षा और ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए एनकाउंटर ही एक मात्र रास्ता रह जाता है. पुलिस का यह कहना गलत भी नहीं है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस के एनकाउंटर में बेगुनाह लोगों की मौत नहीं होती? अगर होती है तो उसके रोकने के लिए क्या उचित उपाय है? कई जगह तो यह बात भी सुनने मे आता है कि पुलिस वाले ने एक अपराधी से सुपारी लेकर दूसरे अपराधी का एनकाउंटर कर दिया, आपसी रंजिश में एनकाउंटर कोई नयी बात नहीं है. सोहराबुद्दीन का केस न्यायालय में है और उस पर फैसला कोर्ट करेगा, लेकिन देश की जनता के सामने एक सवाल यह है कि क्या पुलिस के पास इस तरह के एनकाउंटर का अधिकार होने चाहिए? क्या कानून के शासन में पुलिस या किसी एजेसी को बिना कानूनी कार्रवाई के सजा देने का अधिकार मिलना चाहिए? फर्जी मुठभेड़ पर देशभर में बहस तब छिड़ी जब सीआडी ने सोहराबुद्दीन केस की जांच में बताया कि यह फर्जी मुठभेड़ था. दरअसल बात यह थी कि 2005 में सोहराबुद्दीन अपनी पत्नी और दोस्त के साथ हैदराबाद से संगली बस से जा रहे थे. रास्ते में ही पुलिसवालों ने तीनों को रास्ते मे ही उतार लिया. सोहराबुद्दीन की हत्या उसी दिन कर दिया गया और बताया गया कि यह लश्कर का आतंकवादी था, जो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई बड़े नेताओं की हत्या के फिराक में था. उनकी पत्नी की हत्या दो दिन के बाद कर दी गयी और दोस्त की हत्या लगभग महीने भर बाद. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इस केस की सच्चाई सामने आ रही है. ऐसे में दिल्ली और मुंबई सहित पूरे देश में हो रहे एनकाउंटर शक के दायरे में आ गये हैं. प्रकाश में आये ज्यादातर पुलिसवालों की संपत्ति लाखों में नहीं करोड़ों में देखी गयी है. एक लेखक के रूप में कैरियर की शुरुआत करने के बाद पुलिस फोर्स ज्वाइन करनेवाले दया नायक की संपत्ति का अनुमान एंटी करप्शन ब्यरो ने लगभग 9 करोड़ आंकी है. एक सब इंस्पेक्टर जिसकी सैलरी 12 हजार रुपये है, को दुबई के एक होटल का पार्टनर बना पाया गया है और कर्नाटक में 1 करोड़ की लागत से स्कूल भी है, जिसका उदघाटन सुपर स्टार अमिताभ बच्च्न ने किया था. ऐसा नहीं है कि ऐसे केस सिर्फ मुंबई में ही हुए है. देश के अन्य शहरों में भी इस तरह की घटनाएं आम है. सोहराबुद्दीन मामले से प्रकाश में आये डीआइजी डीजी बंजारा की संपत्ति तो लगभग 150 करोड़ बतायी जा रही है, जिसमें होटल, बंगला और भूमि है. फर्जी मुठभेड़ से ऐसे पुलिसवालों की कमायी का अंदाजा लगाना इतना आसान भी नहीं है. जमीन-जायदाद के मामले को सुलझान में ही कमाई लाखों में हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक फर्जी मुठभेड़ में एक पुलिसवाले की सलाना कमाई 2 से 5 करोड़ रुपये तक हो जाती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इतना सबकुछ पता है तो ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है, जवाब भी सीधा है कि ऐसे लोगों के उपर राजनेताआें का हाथ होता है, जो ऐसे पुलिसवावलों का उपयोग अपने सत्ता संचालन में करते हैं. एनकाउंटर पहले भी होता था. पहला फर्जी एनकाउंटर 1940 में तेलंगाना मूवमेंट के समय हुआ था, जिसमें बहुत से लोगों को मौत के घाट उतारा गया था. इमरजेंसी के समय ऐसे एनकाउंटर की संख्या में वृद्धि देखने को मिली. एनएचआरसी की एक रिपोर्ट के अनुसार फर्जी मुठभेड़ के मामले में उत्तरप्रदेश सबसे प्रभावित प्रांत है, जहां 2003-04 में 68 फर्जी एनकाउंटर हुये और 2004-05 में 54. जबकि दूसरे स्थान पर आंध्रप्रदेश का नंबर आता है. लेकिन इन आंकड़ों को भी पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता, क्योंकि सोहराबुद्दीन जैसे कितने ही मामले होंगे, जो प्रकाश में नहीं आये होंगे. इसलिए अंदाजा लगाना मुश्किल है. ज्यादातर फर्जी मुठभेड़ के मामले कोर्ट तक पहुंच ही नहीं पाते हैं. सवाल यह उठता है कि ऐसे में पुलिस फोर्स को अपराध से लड़ने के लिए किस प्रकार का और कैसे अधिकार दिये जाने चाहिए और उसका उपयोग किस प्रकार से करें कि इसका गलत उपयोग न हो सके. इसके लिए पुलिस प्रशासन को एक दिशा निर्देश की जरूरत है, जिसमें हर एक एनकाउंटर के बाद उसकी पुलिस विभाग द्वारा ही जांच की जानी चाहिए. पुलिस को राज्य ह्यूमन राइट कमीशन को एनकाउंटर के बारे में बताना चाहिए, जिससे ह्यूमन राइट कमीशन उसकी जांच कर सके.

जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं बनाया जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगा.

प्रशांत भूषण
वरिष्ठ अधिवक्ता
आये दिन पुलिस द्वारा किये गये फर्जी मुठभेड़ की खबर सुनने को मिलती है, लेकिन अजीब विडंबना है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसवालों को दंड कम ही मिल पाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे सिस्टम में व्याप्त खामियां हैं. फर्जी मुठभेड़ की खबर जब सामने आती है, तब कोई जांच कमेटी या साधारण जांच गठित कर दी जाती है. लेकिन इसका निष्कर्ष सही दिशा में नहीं निकल पाता. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है जांच में पुलिसवालों का शामिल होना. निश्चित रूप से एकसाथ काम कर रहे पुलिसवालों को आपस में सांठ-गांठ बनी ही रहती है. यह बात स्पष्ट रूप से जांच में सामने आता है. गुजरात, कश्मीर, उत्तर पूर्वी राज्यों आदि में फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं अक्सर सुनने में आती है. ऐसे मामलों में सभी की सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिए. राजनीतिक पार्टियां भी अपने हित के लिए पुलिस का इस्तेमाल करती है और फर्जी एनकाउंटर करवाया जाता है. एक समस्या यह भी है कि आज भारतीय समाज जागरूक कम ही हो पायी है. अगर पुलिस कहती है कि कोई आतंकवादी मारा गया है, तो हम भी यह मान लेते हैं कि वाकई में आतंकवादी ही मारे गये हैं. हम सवाल पूछना नहीं सीख पाये हैं, जबकि कानून में ऐसे प्रावधान दिये गये हैं. फर्जी एनकाउंटर के मामले में हमारे देश का कानून बहुत हद तक प्रभावी नहीं है, क्योंकि कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सीपीसी) के सेक्शन 197 के अनुसार पब्लिक सर्वेंट को गैर-जवाबदेही का अधिकार देता है. इस सेक्शन को हटाने की मांग कई साल से चल रही है. इस कानून के अंतर्गत पब्लिक सर्वेंट के ऊपर केस चलाने के लिए सरकार से आज्ञा लेनी पड़ती है. जो कम ही मिल पाती है या इसमें काफी विलंब होता है. सबसे बड़ी बात है फर्जी मुठभेड़ों के अधिकांश मामलों में घटना का चश्मदीद ही नहीं मिलता. सिर्फ पुलिस द्वारा बतायी गयी बात और परिस्थितिजन्य साक्ष्य ही सबूत के तौर पर पेश किया जाता है. यही कारण है कि किसी फर्जी मुठभेड़ को गलत साबित करना मुश्किल होता है. मौजूदा कानून में सुधार की बात की जाये तो हर अप्राकृतिक मौत के मामले में एफआइआर दर्ज होनी चाहिए और साथ ही ऐसे हर मामलों में जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा अवश्य हो. जांच शुरू होते ही आरोपी पुलिसवाले को उसके सेवा से निलंबित रखा जाये. अगर किसी को लगता है कि उसके परिवार का कोई सदस्य फर्जी मुठभेड़ का शिकार हुआ है, तो सबसे पहले उसे कोर्ट में लापता या अपहरण का केस दर्ज करवाना चाहिए, वहीं अगर कोई व्यक्ति पुलिस कस्टडी में है, तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करवानी चाहिए. इतना ही नहीं पुलिस के खिलाफ निजी तौर पर भी शिकायत दर्ज करवायी जा सकती है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी परेशानी यही है कि जांच का जिम्मा पुलिसवालों को ही थमाया जाता है और पुलिसवाले पीड़ित पर मामला वापस लेकर दबाव डालती है. जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं सुधारा जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगी.
बातचीत : कमलेश कुमार

सिस्टम बने जवाबदेह
वेद मारवाह
पूर्व डीजी, एनएसजी

पुलिस अधिकारियों द्वारा फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने की मुख्य वजह है कि कुछ पुलिस अधिकारी सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचते हैं और किसी भी तरह अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं. सिर्फ वे ही इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं. राजनेताओं और जनता में यह भरोसा बन रहा है कि पुलिस को ज्यादा से ज्यादा ताकत दें. इससे अपराधियों से बेहतर ढंग से निपट सकेगी और अपराधों को कम किया जा सकेगा. ऐसी मान्यता इसलिए भी बन रही है, क्योंकि सभी यह देख रहे हैं कि मामले सालों तक अदालतों में पड़े रहते हैं और
अपराधी बाहर घूमते रहते हैं. आतंकवाद के बमुश्किल तीन-चार फीसदी मामलों में सजा हो पाती है. ऐसे में कई पुलिस अधिकारी कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं. अगर हम संगठित अपराधों की बात करें, तो उनके पीछे हमेशा लॉबी का हाथ होता है. ज्यूडिसियरी से कारावास तक सभी कुछ नियोजित होता है. मसलन कौन जांच करेगा, कहां सुनवाई होगी आदि. यही वजह है कि नेताओं के मामलों की सुनवाई सालों-साल नहीं होती. दरअसल, पुलिस व ज्यूडिशयल सिस्टम दोनों में भारी कमियां हैं. पुलिस महकमे में सुधार के न जाने कितने कमीशन बने, कमिटियां बनीं, सुप्रीम कोर्ट ने सुधार के आदेश दिये, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. जहां तक सोहराबुद्दीन के फर्जी एनकाउंटर का मामला है, तो उस बारे में मुझे पूरी जानकारी नहीं है, लेकिन मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उनके आधार पर मैं इसे घृणित काम करार देता हूं. मेरा मानना है कि इस घटना की जितनी भी निंदा की जाये कम है. यह जनता के भरोसे के साथ सरासर खिलवाड़ है. खास बात यह है कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है, बल्कि इससे पहले भी फर्जी मुठभेड़ों की खबरें सामने आती रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार, जम्मू-कश्मीर और नक्सल प्रभावित इलाकों में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं. एक दौर था, जब पंजाब में भी सीनियर अधिकारियों के नाम फर्जी मुठभेड़ों में आते रहे. हैरत होती है कि उन्हीं अधिकारियों को हीरो बना दिया गया. अब इसके लिए दोष किसे दें. कुछ हद तक इसमें मीडिया की भूमिका भी सही नहीं कही जा सकती. उसने इन लोगों को हीरो बनाया. ये लोग कई बार तर्क देते हैं कि समाज को अपराध मुक्त करने की कोशिशों में एक-आध निर्दोष की जान जा सकती है. लेकिन यह तर्क सरासर गलत है. अगर ऐसा होगा तो सारा सिस्टम ही बर्बाद हो जायेगा. जंगलराज आ जायेगा. जनता में असुरक्षा की भावना बढ़ेगी. देश में महज पावरवाले लोगों का राज चलेगा. अपराधी और निर्दोष का फर्क खत्म हो जायेगा. यानी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही तबाह हो जायेगी. इस समय पुलिस व न्याय व्यवस्था की जो हालत है, उसके लिए हमारा सरकारी तंत्र भी जिम्मेदार है. एक तो पॉलिटिक्स पूरी तरह बाजारू हो गयी है. ऐसे में अधिकारियों को भी मौका मिल जाता है, अपनी मनमानी करने का. इसके अलावा, ज्यादातर सरकारें कम वक्त ही सत्ता में रह पाती हैं. इन अस्थिर सरकारों की लांग टर्म सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं होती. वे ऐसे मैजिक की तलाश में होती हैं, जो तुरंत बदलाव ले आये. हालात तभी बदल सकते हैं, जब इस तरह के मसलों पर राजनीति से ऊपर उठकर सभी दल गंभीर होकर समाधान की कोशिश करें. इसके अलावा दोषियों को कठोर से कठोर दंड दिया जाना जरूरी है, ताकि दूसरे लोगों को एक सबक मिल सके. ज्यूडिशयल सिस्टम को मजबूत किया जाना चाहिए. इस सिस्टम की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए. कानून अगर ग्राउंड रियलिटी को ध्यान में रखकर न बनाये जायें, तो वे कभी प्रभावी नहीं हो सकते. आतंकवाद की रोकथाम के लिए अलग से कानून होना चाहिए. पहले था भी, लेकिन उसे हटा दिया गया. भारत जैसे आतंकवाद से ग्रसित मुल्क में ऐसे कानून के बिना काम नहीं चल सकता.
प्रस्तुति व संकलन : संजय कुमार
रांची से प्रकाशित एक समाचार पत्र प्रभात खबर से साभार

5 comments:

Atul Sharma said...

अगिनखोरजी आपने मेरे चिट्ठे पर पधार कर उसे धन्य कर दिया। आपने बहुत तथ्य जुटाए हैं इस पोस्ट के लिए और वे सही भी हैं। आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ कि फर्जी एनकाउंटर में बेगुनाह मारे जाते हैं और इस बात पर सवाल उठाए जाने चाहिए। परंतु इस पोस्ट में आपने तुलसी प्रजापति को सोहराबुद्दीन का दोस्त बताया है और पिछली पोस्ट में तुलसी को सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर की सहेली बताया। आपकी किस बात को सही माना जाए?
आपको मैं फिर बता दूँ मैंने अखबारों की कतरनों से तथ्य जरूर लिए हैं परंतु यहाँ की स्‍थानीय जनता जानती है और आप भी जान लें कि सोहराबुद्दीन का गाँव मेरे गृहनगर के पास है और इस इलाके में सब जानते हैं कि वह गुंडागर्दी करने वाला एक अपराधी था। यहाँ स्थानीय पुलिस स्टेशनों में उसके रिकॉर्ड हैं और यहाँ उसे जेल भी हुई थी। जेल में ही उसके तार माफिया से मिले और वह हथियारों की तस्करी में उतरा। उसके गाँव में आज से एक दशक पहले पुलिस ने हथियार प्लांट नहीं किए थे।
आपने फजी एनकाउंटर के बारे में विस्तार से लिखा है। उससे मुझे इन्कार नहीं है परंतु सोहराबुद्दीन मेरे इलाके का स्थानीय अपराधी था, यह बात यहाँ की जनता जानती है और यह बात देश के अन्य भाग के लोग नहीं जानते। ये लोग वही जानते है जो मीडिया बताता है।

Atul Sharma said...

सोहराब का साथी तुलसी उसे जेल में मिला था यहीं से उनका साथ शुरु हुआ था।
आप जहाँ भी रहते हैं वहाँ के स्थानीय अपराधी के बारे में आप बहुत बेहतर जानेंगे और मैं वह जानूँगा जो अखबारों और टीवी में आएगा।

Unknown said...

अतुल जी ने सही कहा, हम उज्जैन के लोग उसके बारे में ज्यादा जानते हैं कि वह क्या था ? इस देश में तो सलेम, तेलगी और यदि कल दाऊद भी आ जाये तो उसका मानवाधिकार सुरक्षित रहना चाहिये.. इस पूरे मुद्दे पर मेरी पोस्ट पर भी एक निगाह डाल लें..
"सोहराब और गंगाजल ?"
http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2007/04/blog-post_30.html

अगिनखोर said...

यह तो वही बात हुई न कि चलिए माना आपने हत्या नहीं की है पर आप पाकिटमार ज़रूर हैं.
पहले आप जैसे ही लोग थे जो कहते थे कि सोहराबुद्दीन आतंकी था और मोदी को मारनेवाला था. अब जब झूठ सामने आया तो कहा जा रहा है कि वह ' गुंडागर्दी करने वाला एक अपराधी था '. ऐसे में संदिग्ध हो जाता है मामला कि आप क्या सही बोल रहे हैं. मामला अमेरिका के इराक पर हमला करने जैसा हो गया है. हथियार नहीं मिले तो कोई बात नहीं, हम तो आपको बिना बताये आज़ाद कराने आये थे.
वह मार दिया गया आतंकी कह कर और अब आप कह रहे हैं कि वह आतंकी भले न था अपराधी था.
और आप सैद्धांतिक तौर पर सहमत हैं कि मुठभेड़ गलत है मगर सोहराबुद्दीन का एनकाऊंटर सही था. हद है. आप इस तरह दो विचार कैसे रख सकते हैं?
और फिर अगर एनकाऊंटर ही रास्ता है तो अदालतें क्यों हैं? क्या अदालतें इसलिए हैं कि उनसे असली अपराधी यानी नेता और रसूखवाले बेदाग छूट कर बाहर आ जायें और एनकाऊंटर इसलिए कि अपराधी होने के नाम पर निर्दोष लोग मार दिये जाये? क्यों किसी रसूखवाले अपराधी या गुंडे का अब तक एनकाऊंटर नहीं हुआ? शहाबुद्दीन हो या पंढेर. सब इन्हें बचाने में ही लगे हैं. और आप कहेंगे कि कानून अपना काम कर रहा है.
तो क्या यह समझा जाये कि नेताओं और रसूखवाले असली दोषियों के लिए कानून अपना काम करेगा (यानी उन्हें बचायेगा) और दोषी होने के नाम पर पुलिस आम लोगों का एनकाऊंटर करेगी.
अच्छी तकनीक है.

Atul Sharma said...

महोदय आपकी भाषा और अध्ययन स्तुत्य है। परंतु आप केवल सोहराबुद्दीन का नाम रटे जा रहे हैं और यही हर कोई कर रहा है। इस सब में तुलसी कहाँ चला जाता है। उसके मानव अधिकार के बारे में क्यों बात नहीं हो रही। तकलीफ यही है हर बार सोहराबुद्दीन की बात करने से जनता के सामने एक विशेष वर्ग का ही नाम आता है। एनकाउंटर और मानव अधिकार के मुद्दे पर भी बात की जाएगी परंतु लोगों को एक सोहराबुद्दीन ही क्यों नजर आ रहा है।
चलिए फिर से बता दूँ सोहराबुद्दीन मेरे इलाके में सामान्य अपराधी था उस समय उसका एनकाउंटर नहीं हुआ था। हथियारों की तस्करी से और कराची से उसके तार जुड़े थे। अब उसका अपराध सामान्य नहीं रहता बल्कि विशेष हो जाता है। फिर से मेरे चिट्ठे की पोस्ट पढ़ें, उसमें लिखा है कि यह घटना क्रम आपराधिक घटना क्रम था। यही मेरा आग्रह था कि इसे पुलिस और अपराधी के बीच घटना समझा जाए। परंतु इसे धर्म का जामा पहनाया जा रहा है। पुलिस वालों ने तो तुलसी को भी मार दिया। इसमें हिन्दु मुस्लिम की बात नहीं है। यदि घटना गुजरात में न होकर किसी और राज्य में होती तो इसका ऐसा रंग नहीं होता।
जो सही है उससे तो सहमत होना तो लाजमी है ना भाई। एनकाउंटर में निर्दोष न मरें यह ठीक है, इस एनकाउंटर पर भी आप सवाल उठाते हैं तो भी कोई बात नहीं। मैं फिर कहना चाहूँगा कि इसे ऐसा प्रचारित न करें कि गुजरात पुलिस ने मुसलमान को मारा। यही ग़लत नज़रिया है। वैसे आप इससे भी न सहमत तो भी कोई बात नहीं।
आप यह भी जान लें कि एनकाउंटर बहुत पहले इन्दौर में भी हुए हैं। उसमें मरने वाले स्थानीय गुंडे थे, जो मुसलमान भी थे और हिन्दु भी थे। परन्तु इन्दौर की जनता ने दोनों के लिए कोई स्यापा नहीं किया।
शायद अब आप मेरा मंत‍व्य समझ जाएँ।
हाँ मेरे प्रश्न का क्या हुआ। तुलसी, सोहराब का दोस्त है या सोहराब की पत्नी की सहेली?