Tuesday, May 8, 2007

मगर हाकरों की अब किसको ज़रूरत है

बिमल राय
बिहार के समस्तीपुर जिले के हॉकर रघू का ठेहुना फूटा हुआ था. हाथ में चनाचूर के पैकेट थे और सांसें फूल रही थीं. हावड़ा से सबसे आखिरी, यानी पौने बारह बजे खुलने वाली इस लोकल ट्रेन के भुखाये व थके यात्रियों को चना बादाम बेचकर पांच साल से अपना गुजारा करता था वह. उस दिन वह रेलवे पुलिस की चपेट में आ गया और भागते भागते गिर पड़ा. हॉकरों के सामने अब कोई विकल्प नहीं है और रेलवे पुलिस हाल ही में आये हाइकोर्ट के फैसले को हर हाल में लागू करने पर आमादा है. इसे लेकर वाम मोरचा भी सड़क पर है और २३ अप्रैल को कोलकाता की सड़कों पर लहराते लाल पताके इसी नाराजगी को जाहिर कर रहे थे.
दरअसल पूर्व रेलवे की याचिका पर कोलकाता हाइकोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है, जो देश के करोड़ों रेलवे हॉकरों पर गाज बनकर गिरा है. हालांकि कोर्ट ने सिर्फ रेलवे एक्ट १४४ व १४४ ए को कड़ाई से लागू करने को कहा है, पर यह प्रकारांतर से रेलवे पर अवैध हॉकरों व भिखारियों को स्टेशन परिसरों से हटाने के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुआ है. रेलवे तत्काल इस पर अमल भी कर रहा है.
ये हॉकर वैध हों या अवैध, दशकों से शहरों व कस्बों के मध्य व निम्न मध्यवर्गीय जिंदगी का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. कम कीमत व सस्ते सामानों के लिए एक बड़ी आबादी इन पर आश्रित रही है. इन पर देश के कितने ही मध्यम व घरेलू उद्योग टिके हुए हैं. शहरी अर्थव्यवस्था में भी इनका योगदान कम अहम नहीं रहा है. दूसरे सामानों की बात न भी करें तो शहरी उपभोग की ७५ प्रतिशत सब्जी हॉकर ही बेचते हैं. हर नुक्कड़ पर चायवालों के पास इसीलिए भी भीड़ उमड़ती है कि वहां चाय बिस्किट पांच रुपये में मिल सकती है, जो किसी कैफे में ५० से १५० रुपये में मिलते हैं. ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हाइजिन एंड पब्लिक हेल्थ की ओर से कराये गये अध्ययन से पता चला है कि खाद्य सामग्री बेचने वाले हॉकरों के सात रुपये के खाने में एक हजार किलो कैलोरी प्राप्त् होती है. रेलवे ने अब १० रुपये में पूड़ी सब्जी वाला जनता खाना शुरू किया है, पर देश मेंे संभवत: रेलवे के जन्म के साथ से ही ये हॉकर कम कीमत पर आम जनता की सेवा करते आ रहे हैं.
हाइकोर्ट का फैसला तो अब आया है. इसके पहले भी अनधिकृत जमीनों पर या बिना लाइसेंंस दुकानें लगाने पर उन्हें उजाड़ने के अभियान चलाये जाते रहे हैं. शहरों को सुंदर बनाना है. मुंबई को शंघाई और कोलकाता को अत्याधुनिक बनाने की धुन है. राजीव गांधी ने कभी कोलकाता को मरता हुआ शहर कहा था. तब वाम सरकार को बहुत शर्म आयी थी. कोलकाता का देसी चेहरा अब उतना सुंदर नहीं लग रहा था. इसका रूप गोरी जैसा नहीं, रैंप पर थिरकती आधुनिक बाला की तरह दिखना मांगता था. राज्य सरकार ने छह साल पहले ही ऑपरेशन सनशाइन चलाया था. एक ही रात में तीन हजार हॉकर हटाये गये. उस अभियान में कुल एक लाख हॉकर हटाये गये थे. कानून का जोर बढ़ा तो उन लोगों ने अपना संगठन भी बना लिया है. सभी छोटे बड़े हॉकर संगठनों ने हॉकर संग्राम समिति बना ली. लंबी लड़ाई लड़ी गयी. मामला अदालत तक गया. बंगाल सरकार और कोलकाता नगर निगम की हार हुई और कोलकाता का चेहरा चमकाने वालों को पैर पीछे खींचने पड़े. हालांकि इस दौरान १८ हॉकरों ने आत्महत्या कर ली थी. मई २००१ में हॉकर संग्राम समिति की पहल से नेशनल हॉकर फेडरेशन का गठन हुआ, जो पूरे देश में हॉकरों के हित की लड़ाई लड़ रहा है. इनमें ५५० स्वतंत्र यूनियनें हैं, जिन्हें ११ केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का समर्थन हासिल है. इनकी सदस्य संख्या सवा ११ लाख है. फेडरेशन के संघर्ष का नतीजा यह हुआ कि केंद्र को हॉकरों पर एक राष्ट्रीय नीति बनानी पड़ी. शहरी रोजबार व गरीबी उन्मूलन मंत्रालय ने भी २००४ में नेशनल पॉलिसी ऑन अर्बन स्ट्रीट वेंडर्स के नाम से एक नीति बनायी. इस नीति से यह साफ हो गया कि सरकार हॉकरी को आय का एक जरिया नहीं मानती. यह करोड़ों शहरी गरीबों को कम कीमत पर रोजाना की जरूरतों की आपूर्ति का जरिया है.
सवाल है कि विकास किसके लिए? यदि हॉकर हटाने जैसे कथित विकासमूलक कदम से लाखों करोड़ों का दाना पानी छिनता है, तो भां़ड में जाये ऐसा विकास. भारतीय शहरों को शंघाई और हांगकांग बनाने के चक्कर में यदि हम गरीबों की एक नयी फौज खड़ी कर लेते हैं, तो फिर क्या फायदा? अभी हॉकरों पर बनी राष्ट्रीय नीति दिल्ली, पुणे, मुंबई, मध्य प्रदेश और प बंगाल में लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गयी है. पर अब भी देश में ब्रिटिश जमाने के ऐसे कानून हैं, जो हटाये नहीं गये हैं. विधायिका को इस दिशा में अभी और कुछ कदम उठाने की जरूरत है.

1 comment:

Atul Sharma said...

हॉकर संगठन के बारे बहुत अच्छी जानकारी दी है।